भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सुझाई गयी कविताएं" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(13 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 23 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''कृपया [[अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न]] अवश्य पढ लें'''<br><br>
+
[[Category:कविता कोश]]
 +
 
 +
'''कृपया [[अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न]] भी अवश्य पढ़ लें'''<br><br>
  
 
आप जिस कविता का योगदान करना चाहते हैं उसे इस पन्ने पर जोड़ दीजिये।
 
आप जिस कविता का योगदान करना चाहते हैं उसे इस पन्ने पर जोड़ दीजिये।
पंक्ति 7: पंक्ति 9:
 
* <b>कविता के साथ-साथ अपना नाम, कविता का नाम और लेखक का नाम भी अवश्य लिखिये।</b>
 
* <b>कविता के साथ-साथ अपना नाम, कविता का नाम और लेखक का नाम भी अवश्य लिखिये।</b>
  
<br><br>*~*~*~*~*~*~* यहाँ से नीचे आप कविताएँ जोड सकते हैं ~*~*~*~*~*~*~*~*~<br><br>
+
<br><br>*~*~*~*~*~*~* यहाँ से नीचे आप कविताएँ जोड़ सकते हैं ~*~*~*~*~*~*~*~*~<br><br>
 
+
 
+
'''शब्दों की तरफ़ से'''
+
 
+
कभी कभी शब्दों की तरफ़ से भी
+
 
+
दुनिया को देखता हूँ ।
+
 
+
 
+
 
+
किसी भी शब्द को
+
 
+
एक आतशी शीशे की तरह
+
 
+
जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर
+
 
+
मुझे उसके पीछे
+
 
+
एक अर्थ दिखाई देता
+
 
+
जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है
+
 
+
 
+
 
+
ऐसे तमाम अर्थों को जब
+
 
+
आपस में इस तरह जोड़ना चाहता हूँ
+
 
+
कि उनके योग से जो भाषा बने
+
 
+
उसमें द्विविधाओं और द्वाभाओं के
+
 
+
सन्देहात्मक क्षितिज न हों, तब-
+
 
+
 
+
 
+
सरल और स्पष्ट
+
 
+
(कुटिल और क्लिष्ट की विभाषाओं में टूट कर)
+
 
+
अकसर इतनी द्रुतगति से अपने रास्तों को बदलते
+
 
+
कि वहाँ विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते
+
 
+
जहाँ अर्थपूर्ण संधियों को होना चाहिए ।
+
 
+
 
+
 
+
00000000000
+
 
+
 
+
 
+
'''एक यात्रा के दौरान'''
+
 
+
 
+
 
+
'''(एक)'''
+
 
+
 
+
 
+
सफ़र से पहले अकसर
+
 
+
रेल-सी लम्बी एक सरसराहट
+
 
+
मेरी रीढ़ पर रेंग जाया करती है।
+
 
+
 
+
 
+
याद आने लगते कुछ बढ़ते फ़ासले-
+
 
+
जैसे जनता और सरकार के बीच,
+
जैसे उसूलों और व्यवहार के बीच,
+
 
+
जैसे सम्पत्ति और विपत्ति के बीच,
+
 
+
जैसे गति और प्रगति के बीच
+
 
+
 
+
 
+
घेरने लगती कुछ असह्य नज़दीकियाँ-
+
 
+
 
+
 
+
जैसे दृढ़ता और विचलन के बीच,
+
 
+
जैसे तेज़ी और फिसलन के बीच,
+
 
+
जैसे सफ़ाई और गन्दगी के बीच,
+
 
+
जैसे मौत और जिन्दगी के बीच ।
+
 
+
 
+
 
+
याद आते छोटे-छोटे स्टेशनों पर फैले
+
 
+
बीमार रोशनी के मैले मरियल उजाले,
+
 
+
गाड़ी छूटने का बौखलाहट–भरा वक़्त,
+
 
+
आरक्षण-चार्ट की अन्तिम कार्बन-कापी,
+
 
+
याद आती ट्रेन के इस छोर से उस छोर तक
+
 
+
बदहवास दौड़ती जनता अपने बीवी, बच्चों,
+
 
+
सामान, कुली और जेब को एक साथ संभाले....
+
 
+
 
+
 
+
'''(दो)'''
+
 
+
 
+
 
+
सुबह चार बजे मुझे एक ट्रेन पकड़ना है।
+
 
+
मुझे एक यात्रा पर जाना है।
+
 
+
मुझे काम पर जाना है।
+
 
+
 
+
 
+
मुझे कहाँ जाना है
+
 
+
दशरथ की पत्नियों के प्रपंच से बच कर ?
+
 
+
मुझ तरह तरह के कामों के पीछे
+
 
+
कहाँ कहाँ जाना है ?
+
 
+
कहाँ नहीं जाना है ?
+
 
+
 
+
 
+
'''(तीन)'''
+
 
+
 
+
 
+
एक गहरे विवाद में
+
 
+
फँस गया है मेरा कर्तव्य-बोध :
+
 
+
 
+
 
+
ट्रेन ही नहीं एक रॉकेट भी
+
 
+
पकड़ना है मुझे अन्तरिक्ष के लिए
+
 
+
ताकि एक डब्बे में ठसाठस भरा
+
 
+
मेरा ग़रीब देश भी
+
 
+
कह सके सगर्व कि देखो
+
 
+
हम एक साधारण आदमी भी
+
 
+
पहुँचा दिए गए चाँद पर
+
 
+
 
+
 
+
पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध
+
 
+
आकाश की ओर ले जानेवाले ज्ञान के
+
 
+
हम आदिम आचार्य हैं ।
+
 
+
हमारी पवित्र धरती पर
+
 
+
आमंत्रित देवताओं के विमान :
+
 
+
 
+
 
+
न जाने कितनी बार हमने
+
 
+
स्थापित किए हैं गगनचुम्बी उँचाइयों के कीर्तिमान !
+
 
+
 
+
 
+
पर आज
+
 
+
गृहदशा और ग्रहदशा दोनों
+
 
+
कुछ ऐसे प्रतिकूल
+
 
+
कि सातों दिन दिशाशूल :
+
 
+
करते प्रस्थान
+
 
+
रख कर हथेली पर जान
+
 
+
चलते ज़मीन पर देखते आसमान,
+
 
+
काल-तत्व खींचातान : एक आँख
+
 
+
हाथ की घड़ी पर
+
 
+
दूसरी आँख संकट की घड़ी पर ।
+
 
+
न पकड़ से छूटता पुराना सामान,
+
 
+
न पकड़ में आता छूटता वर्तमान।
+
 
+
 
+
 
+
'''(चार)'''
+
 
+
 
+
 
+
घटनाचक्र की तरह घूमते पहिये :
+
 
+
वह भी एक नाटकीय प्रवेश होता है
+
 
+
चलती ट्रेन पकड़ने वक़्त, जब एक पाँव
+
 
+
 
+
 
+
छूटती ट्रेन पर और दूसरा
+
 
+
छूटते प्लेटफ़ार्म पर होता है
+
 
+
सरकते साँप-सी एक गति
+
 
+
दो क़दमों के बीच की फिसलती जगह में,
+
 
+
जब मौत को एक ही झटके में लाँघ कर
+
 
+
हम डब्बे में निरापद हो जाना चाहते हैं :
+
 
+
 
+
 
+
वह एक नया शुभारम्भ होता है किसी यात्रा का
+
 
+
भागती ट्रेन में दोनो पांव जब
+
 
+
एक ही समय में एक ही जगह होते हैं,
+
 
+
जब कोई ख़तरा नहीं नज़र आता
+
 
+
दो गतियों के बीच एक तीसरी संभावना का ।
+
 
+
भविष्य के प्रति आश्वस्त
+
 
+
एक बार फिर जब हम
+
 
+
दुश्चिन्तामुक्त समय में - स्थिर चित्त -
+
 
+
केवल जेब में रख्खे टिकट को सोचते हैं,
+
 
+
उसके या अपने कहीं गिर जाने को नहीं ।
+
 
+
 
+
 
+
'''(पाँच)'''
+
 
+
 
+
 
+
कभी कभी दूसरों का साथ होना मात्र
+
 
+
हमें कृतज्ञ करता
+
 
+
दूसरों के साथ होने मात्र के प्रति,
+
 
+
किसी का सीट बराबर जगह दे देना भी
+
 
+
हमें विश्वास दिलाता कि दुनिया बहुत बड़ी है,
+
 
+
जब अटैची पर एक हल्की-सी पकड़ भी
+
 
+
ज़िंदगी पर पकड़ मालूम होती है,
+
 
+
और दूसरों के लिए चिन्ता
+
 
+
अपने लिए चिन्ताओं से मुक्ति.....
+
 
+
 
+
 
+
'''(छह)'''
+
 
+
 
+
 
+
कुछ आवाज़ें ।
+
 
+
कोई किसी को लेने आया है ।
+
 
+
 
+
 
+
कुछ और आवाज़ें ।
+
 
+
कोई किसी को छोड़ने आया है।
+
 
+
किसी का कुछ छूट गया है।
+
 
+
छूटते स्टेशन पर
+
 
+
छूटे वक़्त की हड़बड़ी में ।
+
 
+
 
+
 
+
अब एक बज रहा स्टेशन की घड़ी में ।
+
 
+
+
 
+
'''(सात)'''
+
 
+
 
+
 
+
क्यों किसी की सन्दूक का कोना
+
 
+
अचानक मेरी पिण्डली में गड़ने लगा ?
+
 
+
क्यों मेरे सिर के ठीक ऊपर टिका
+
 
+
गिरने-गिरने को वह बिस्तर अखरने लगा ?
+
 
+
कौन हैं वे ?
+
 
+
क्यों मेरी चिन्ताओं का एक कोना
+
 
+
उनसे भरने लगा ?-
+
 
+
 
+
 
+
मेरी एक ओर बैठा वह
+
 
+
विक्षिप्त –सा युवक,
+
 
+
मेरी दूसरी ओर वह चिन्तित स्त्री, 
+
 
+
अपने बच्चेको छाती से चिपकाये
+
 
+
दोनों के बीच मैं कौन हूँ --
+
 
+
केवल एक आरक्षित जगह का दावेदार ?
+
 
+
वह स्त्री और वह बच्चा
+
 
+
 
+
 
+
क्यों नहीं दो मनुष्यों के बीच
+
 
+
एक पूर्णतः सुरक्षित संसार ?
+
 
+
 
+
 
+
क्यों यह निरन्तर आने जाने का क्रम
+
 
+
अनाश्वस्त करता -
+
 
+
और उस पूरी व्यवस्था को ध्वस्त
+
 
+
जिस हम किसी तरह
+
 
+
दो स्टेशनों के बीच मान लेते हैं ?
+
 
+
जो अनायास मिलता और छूट जाता
+
 
+
क्यों ऐसा
+
 
+
मानो कुछ बनता और टूट जाता ?
+
 
+
 
+
 
+
'''(आठ)'''
+
 
+
 
+
 
+
शायद मैं ऊँघ कर
+
 
+
लुढ़क गया था एक स्वप्न में -
+
 
+
 
+
 
+
एक प्राचीन शिलालेख के अधमिटे अक्षर
+
 
+
पढ़ते हुए चकित हूँ कि इतना सब समय
+
 
+
कैसे समा गया दो ही तारीख़ों के बीच
+
 
+
कैसे अट गया एक ही पट पर
+
 
+
एक जन्म
+
 
+
एक विवरण
+
 
+
एक मृत्यु
+
 
+
और वह एक उपदेश-से दिखते
+
 
+
अमूर्त अछोर आकाश का अटूट विस्तार
+
 
+
जिसमे न कहीं किसी तरफ़
+
 
+
ले जाते रास्ते
+
 
+
न कहीं किसी तरफ़ बुलाते संकेत,
+
 
+
केवल एक अदृश्य हाथ
+
 
+
अपने ही लिखे को कभी कहता स्वप्न
+
 
+
कभी कहता संसार......
+
 
+
 
+
 
+
अचानक वह ट्रेन जिसमें रखा हुआ था मैं
+
 
+
और खिलौने की तरह छोटी हो गई,
+
 
+
और एक बच्चे की हथेलियाँ इतनी बड़ी
+
 
+
कि उस पर रेल-रेल खेलने लगे फ़ासले
+
 
+
बना कर छोटे बड़े घर, पहाड़, मैदान, नदी, नाले .....
+
 
+
उसकी क़लाई में बंधी पृथ्वी
+
 
+
अकस्मात् बज उठी जैसे घुँघरू
+
 
+
रेल की सीटी .....
+
 
+
 
+
 
+
'''(नौ)'''
+
 
+
 
+
 
+
शायद उसी वक़्त मैंने
+
 
+
गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की
+
 
+
और चौंक कर उठ बैठा था ।
+
 
+
पैताने दो पांव-
+
 
+
क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ?
+
 
+
 
+
 
+
सोच रात है अभी,
+
 
+
सुबह उतार लूँगा इन्हें
+
 
+
अपने सामान के साथ ।
+
 
+
सुबह हुई तो देखा
+
 
+
कन्धों पर ढो रहे थे मुझे
+
 
+
किसी और के पाँव ।
+
 
+
 
+
 
+
हफ़्ते.....महीने....साल....
+
 
+
 
+
 
+
बीत गए पल भर में,
+
 
+
“पिता ? तुम ? यहां ?”
+
 
+
 
+
 
+
“मुझे चाहिए मेरे पाँव,....वापस करो उन्हें ।”
+
 
+
“नहीं,वे मेरे हैं : मैं
+
 
+
उन पर आश्रित हूँ।
+
 
+
और मेरा परिवार :
+
 
+
मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !”
+
 
+
 
+
 
+
वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी ।
+
 
+
कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम
+
 
+
जी डालते हैं एक पूरा जीवन - एक पूरी मृत्यु --
+
 
+
एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है
+
 
+
किसके पाँवों पर ?
+
 
+
+
 
+
'''(दस)'''
+
 
+
 
+
 
+
नींद खुल गई थी
+
 
+
शायद किसी बच्चे के रोने से
+
  
या किसी माँ के परेशान होने से
 
  
या किसी के अपनी जगह से उठने से
+
स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे<br>
 +
सो गये हैं अब सारे तारे<br>
 +
चाँद ने भी ली विदाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई.<br>
  
या ट्रेन की गति के धीमी पड़ने से
+
मचलते पंछी पंख फैलाते<br>
 +
ठंडे हवा के झोंके आते<br>
 +
नयी किरण की नयी परछाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
या शायद उस हड़कम्प से जो
+
कहीं ईश्वर के भजन हैं होते<br>
 +
लोग इबादत में मगन हैं होते<br>
 +
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
स्टेशन पास आने पर मचता है.....
+
मोहक लगती फैली हरियाली<br>
 +
होकर चंचल और मतवाली<br>
 +
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
 +
फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ<br>
 +
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ<br>
 +
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
 +
-------------------------------------
 +
आनंद गुप्ता<br>
 +
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -        <br>      कवि - अहमद फ़राज़  / <br>
 +
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये<br>
 +
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//<br>
 +
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला <br>
 +
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //<br>
 +
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना <br>
 +
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //<br>
 +
अब आये हो तो यहाँ  क्या है देखने के लिये <br>
 +
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //<br>
 +
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा <br>
 +
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //<br>
 +
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़" <br>
 +
इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//<br>
 +
---  ---    प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------<br>
 +
- - -  --  ---    ---    ---        ----        -----    ------  ----      ---
  
बाहर अँधेरा ।
 
  
भीतर इतना सब
+
कवि - गुलाम मुर्तुजा राही
  
एक मामूली-सी रोशनी में भी जगमग
+
छिप के कारोबार करना चाहता है
  
जागता और जगाता हुआ ।
+
घर को वो बाज़ार करना चाहता है।
  
एक छोटा–सा प्लेटफ़ॉर्म सरक कर पास आता
 
  
सुबह की रोशनी में,
+
आसमानों के तले रहता है लेकिन
  
डब्बे में चढ़ते उतरते लोगों का ताँता
+
बोझ से इंकार करना चाहता है ।
  
  
 +
चाहता है वो कि दरिया सूख जाये
  
कोई जगह ख़ाली करता
+
रेत का व्यौपार करना चाहता है ।
  
कोई जगह बनाता ।
 
  
 +
खींचता रहा है कागज पर लकीरें
  
 +
जाने क्या तैयार करना चाहता है ।
  
'''(ग्यारह)'''
 
  
 +
पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन
  
 +
घूम कर इक वार करना चाहता है ।
  
बाहर किसी घसीट लिखावट में
 
  
लिखे गए परिचित यात्रा-वृत्तान्त के
+
दूर की कौडी उसे लानी है शायद
  
फरकराते दृश्यों को बिना पढ़े
+
सरहदों को पार करना चाहता है ।
  
पन्नों पर पन्ने उलटती चली जाती रफ़्तार :
 
  
विवरण कहीं कहीं रोचक
 
  
प्लॉट अव्यवस्थित, उथले विचार, उबाऊ विस्तार !
+
  प्रेषक - संजीव द्विवेदी -
  
 +
--------- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
 +
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम।
 +
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
  
  
भीतर एक डब्बे में खचाखच भरा
+
कविता का शीर्षक
 +
'''फुर्सत नहीं है'''
  
एक टुकड़ा भारतीय समाज
+
कवि '''पवन चन्दन'''
 +
प्रेषक अविनाश वाचस्पति
  
मानो कहानियों, फिल्मों, कॉमिक्स, अख़बार आदि से
+
हम बीमार थे
 +
यार-दोस्त श्रद्धांजलि
 +
को तैयार थे
 +
रोज़ अस्पताल आते
 +
हमें जीवित पा
 +
निराश लौटे जाते
  
लेकर बनाये गये चरित्रों का कोलाज ।
+
एक दिन हमने
 +
खुद ही विचारा
 +
और अपने चौथे
 +
नेत्र से निहारा
 +
देखा
 +
चित्रगुप्त का लेखा
  
 +
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है
 +
शायद
 +
यमराज लेट हो गया है
 +
या फिर
 +
उसकी नज़र फिसल गई
 +
और हमारी मौत
 +
की तारीख निकल गई
 +
यार-दोस्त हमारे न मरने पर
 +
रो रहे हैं
 +
इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं
  
 +
किसी ने कहा
 +
यमराज का भैंसा
 +
बीमार हो गया होगा
 +
या यम
 +
ट्रेन में सवार हो गया होगा
 +
और ट्रेन हो गई होगी लेट
 +
आप करते रहिए
 +
अपने मरने का वेट
 +
हो सकता है
 +
एसीपी में खड़ी हो
 +
या किसी दूसरी पे चढ़ी हो
 +
और मौत बोनस पा गई हो
 +
आपसे पहले
 +
औरों की आ गई हो
  
'''(बारह)'''
+
जब कोई
 +
रास्ता नहीं दिखा
 +
तो हमने
 +
यम के पीए को लिखा
 +
सब यार-दोस्त
 +
हमें कंधा देने को रुके हैं
 +
कुछ तो हमारे मरने की
 +
छुट्टी भी कर चुके हैं
 +
और हम अभी तक नहीं मरे हैं
 +
सारे
 +
इस बात से डरे हैं
 +
कि भेद खुला तो क्या करेंगे
 +
हम नहीं मरे
 +
तो क्या खुद मरेंगे
 +
वरना बॉस को
 +
क्या कहेंगे
  
 +
इतना लिखने पर भा
 +
कोई जवाब नहीं आया
 +
तो हमने फ़ोन घुमाया
 +
जब मिला फ़ोन
 +
तो यम बोला. . .कौन?
 +
हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं
 +
मौत की
 +
लाइन में खड़े हैं
 +
प्राणों के प्यासे, जल्दी आ
 +
हमें जीवन से
 +
छुटकारा दिला
  
 +
क्या हमारी मौत
 +
लाइन में नहीं है
 +
या यमदूतों की कमी है
  
यहाँ और वहाँ के बीच
+
नहीं
 +
कमी तो नहीं है
 +
जितने भरती किए
 +
सब भारत की तक़दीर में हैं
 +
कुछ असम में हैं
 +
तो कुछ कश्मीर में हैं
  
कहीं किसी उजाड़ जगह
+
जान लेना तो ईज़ी है
 +
पर क्या करूँ
 +
हरेक बिज़ी है
  
अनिश्चित काल के लिए
+
तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है
 +
अभी तो हमें भी
 +
मरने की फ़ुरसत नहीं है
  
खड़ी हो गई है ट्रेन ।
+
मैं खुद शर्मिंदा हूँ
 +
मेरी भी
 +
मौत की तारीख
 +
निकल चुकी है
 +
मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।
  
दूर तक फैली ऊबड़खाबड़ पहाड़ियाँ,
+
...
 +
कविता का शीर्षक
 +
'''मज़ा'''
  
जगह जगह टेसू और बबूल की झाड़ियाँ,
+
कवि  '''अविनाश वाचस्पति'''
  
काँस औऱ जँगली घास के झाड़झंखाड़,
+
आज क्या हो रहा है
 +
और क्या होने वाला है?
  
जहाँ तहाँ बरसाती पानी के तलाब .....
+
इसे देखकर
 +
जान-समझकर
 +
परेशान हैं कुछ
 +
और
 +
खुश होने वाले भी अनेक।
  
वह सब जो चल रहा था
+
मज़े उन्हीं के हैं
 +
जिन पर इन चीज़ों का
 +
असर नहीं पड़ता।
  
अचानक अकारण अमय कहीं रुक गया है  
+
वे जानते हैं
 +
जो होना है
 +
वो तो होना ही है
 +
और हो भी रहा है
 +
तो फिर
 +
बेवजह बेकार की
 +
माथा-पच्ची करने से
 +
क्या लाभ?
  
आशंका और उतावली के किसी असह्य बिन्दु पर ।
 
  
 +
संजय सेन सागर
  
 +
मां तुम कहां हो
  
कुछ हुआ है जो नहीं होना चाहिए था
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है
  
जो अकसर होता रहता है जीवन में ।
+
वो तेरा सीने से लगाना,
  
कौन थे वे जो होकर भी नहीं होते ?
 
  
ऐसा क्यों हुआ ? वैसा क्यों नहीं हुआ
 
  
जैसा होना चाहिए था ?
 
  
सवालों के एक उफान के बाद
+
आंचल में सुलाना याद आता है।
  
अलग अलग अनुमानों में निथर कर
+
क्यों तुम मुझसे दूर गई,
  
बैठ गई हैं उत्सुकताएँ ।
 
  
  
  
फिर चल पड़ती है ट्रेन एक धक्के से
+
किस बात पर तुम रूठी हो,
  
घसीटती हुई अपने साथ
+
मैं तो झट से हंस देता था।
  
उस शेष को भी जो घटित होगा
 
  
कुछ समय बाद
 
  
कहीं और
 
  
किसी अन्य यहाँ और वहाँ के बीच
+
पर तुम तो
  
+
अब तक रूठी हो।
  
'''(तेरह)'''
 
  
  
  
धीमी पड़ती चाल ।
+
रोता है हर पल दिल मेरा,
  
अगले ठहराव पर
+
तेरे खो जाने के बाद,
  
उतर जाना है मुझे ।
 
  
एक सिहरन-सी दौड़ जाती नसों में ।
 
  
  
 +
गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,
  
पहली बार वहाँ जा रहा हूँ ।
+
तेरे सो जाने के बाद।
  
हो सकता है कोई लेने आये, या कोई नहीं
 
  
केवल एक सपाट प्लटफॉर्म मिले,
 
  
बर्फीली ठंढक, अँधेरे और अनिश्चय का
 
  
 +
मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,
  
 +
अब तक दिल में भीनी है।
  
घना कोहरा : इतनी रात गये
 
  
एक बिल्कुल नयी जगह से नयी तरह
 
  
संबंध बनाता हुआ एक अजनबी ।
 
  
 +
इस दुनिया में न कुछ अपना,
  
 +
सब पत्थर दिल बसते हैं,
  
एक ख़ामोश-सी तैयारी है मेरे आसपास
 
  
जैसे यह मेरा घर था
 
  
और अब मैं उसे छोड़कर कहीं और जा रहा हूँ ।
 
  
 +
एक तू ही सत्य की मूरत थी,
  
 +
तू भी तो अब खोई है।
  
'''(चौदह)'''
 
  
  
  
कुछ लोग मुझे लेने आये हैं ।
+
आ जाओ न अब सताओ,
  
मैं उन्हें नहीं जानता :
+
दिल सहम सा जाता है,
  
जैसे कुछ लोग मुझे छोड़ने आये थे
 
  
जिन्हें मैं जानता था ।
 
  
  
 +
अंधेरी सी रात में
  
ट्रेन जा चुकी है
+
मां तेरा चेहरा नजर आता है।
  
एक अस्थायी भागदौड़ और अव्यवस्था बाद
 
  
प्लेटफ़ॉर्म फिर एक सन्नाटे में जम गया है ।
 
  
 
  
'''(पन्द्रह)'''
+
आ जाओ बस एक बार मां
  
 +
अब ना तुम्हें सताउंगा,
  
  
आश्चर्य ! वह स्त्री और बच्चा भी
 
  
अकेले खड़े हैं उधर ।
 
  
 +
चाहे निकले
  
 +
जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।
  
क्या मैं कुछ कर सकता हूँ उनके लिए ?
 
  
स्त्री मुझे निरीह आँखों से देखती है -
 
  
“वो आते होंगे, मेरे लिए भी ......”
 
  
 +
आ जाओ ना मां तुम,
  
 +
मेरा दम निकल सा जाता है।
  
कुछ दूर चल कर
 
  
ठहर गया हूं –
 
  
उसके लिए ?
 
  
या अपने लिए ?
+
हर लम्हा इसी तरह ,
  
देखता हूं उसकी आंखों में 
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।
  
जो घिर आई थी एक दुश्चिन्ता-सी
 
  
एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।
+
-------------------.

12:14, 2 जून 2010 के समय का अवतरण


कृपया अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न भी अवश्य पढ़ लें

आप जिस कविता का योगदान करना चाहते हैं उसे इस पन्ने पर जोड़ दीजिये।
कविता जोड़ने के लिये ऊपर दिये गये Edit लिंक पर क्लिक करें। आपकी जोड़ी गयी कविता नियंत्रक द्वारा सही श्रेणी में लगा दी जाएगी।

  • कृपया इस पन्ने पर से कुछ भी Delete मत करिये - इसमें केवल जोड़िये।
  • कविता के साथ-साथ अपना नाम, कविता का नाम और लेखक का नाम भी अवश्य लिखिये।



*~*~*~*~*~*~* यहाँ से नीचे आप कविताएँ जोड़ सकते हैं ~*~*~*~*~*~*~*~*~


स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे
सो गये हैं अब सारे तारे
चाँद ने भी ली विदाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मचलते पंछी पंख फैलाते
ठंडे हवा के झोंके आते
नयी किरण की नयी परछाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

कहीं ईश्वर के भजन हैं होते
लोग इबादत में मगन हैं होते
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मोहक लगती फैली हरियाली
होकर चंचल और मतवाली
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई
देखो एक नयी सुबह है आई.


आनंद गुप्ता
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
कवि - अहमद फ़राज़ /
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //
अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़"

इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//

--- --- प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------
- - - -- --- --- --- ---- ----- ------ ---- ---


कवि - गुलाम मुर्तुजा राही

छिप के कारोबार करना चाहता है

घर को वो बाज़ार करना चाहता है।


आसमानों के तले रहता है लेकिन

बोझ से इंकार करना चाहता है ।


चाहता है वो कि दरिया सूख जाये

रेत का व्यौपार करना चाहता है ।


खींचता रहा है कागज पर लकीरें

जाने क्या तैयार करना चाहता है ।


पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन

घूम कर इक वार करना चाहता है ।


दूर की कौडी उसे लानी है शायद

सरहदों को पार करना चाहता है ।


 प्रेषक - संजीव द्विवेदी -

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम। दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।


कविता का शीर्षक फुर्सत नहीं है

कवि पवन चन्दन प्रेषक अविनाश वाचस्पति

हम बीमार थे यार-दोस्त श्रद्धांजलि को तैयार थे रोज़ अस्पताल आते हमें जीवित पा निराश लौटे जाते

एक दिन हमने खुद ही विचारा और अपने चौथे नेत्र से निहारा देखा चित्रगुप्त का लेखा

जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है शायद यमराज लेट हो गया है या फिर उसकी नज़र फिसल गई और हमारी मौत की तारीख निकल गई यार-दोस्त हमारे न मरने पर रो रहे हैं इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं

किसी ने कहा यमराज का भैंसा बीमार हो गया होगा या यम ट्रेन में सवार हो गया होगा और ट्रेन हो गई होगी लेट आप करते रहिए अपने मरने का वेट हो सकता है एसीपी में खड़ी हो या किसी दूसरी पे चढ़ी हो और मौत बोनस पा गई हो आपसे पहले औरों की आ गई हो

जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो हमने यम के पीए को लिखा सब यार-दोस्त हमें कंधा देने को रुके हैं कुछ तो हमारे मरने की छुट्टी भी कर चुके हैं और हम अभी तक नहीं मरे हैं सारे इस बात से डरे हैं कि भेद खुला तो क्या करेंगे हम नहीं मरे तो क्या खुद मरेंगे वरना बॉस को क्या कहेंगे

इतना लिखने पर भा कोई जवाब नहीं आया तो हमने फ़ोन घुमाया जब मिला फ़ोन तो यम बोला. . .कौन? हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं मौत की लाइन में खड़े हैं प्राणों के प्यासे, जल्दी आ हमें जीवन से छुटकारा दिला

क्या हमारी मौत लाइन में नहीं है या यमदूतों की कमी है

नहीं कमी तो नहीं है जितने भरती किए सब भारत की तक़दीर में हैं कुछ असम में हैं तो कुछ कश्मीर में हैं

जान लेना तो ईज़ी है पर क्या करूँ हरेक बिज़ी है

तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है अभी तो हमें भी मरने की फ़ुरसत नहीं है

मैं खुद शर्मिंदा हूँ मेरी भी मौत की तारीख निकल चुकी है मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।

... कविता का शीर्षक मज़ा

कवि अविनाश वाचस्पति

आज क्या हो रहा है और क्या होने वाला है?

इसे देखकर जान-समझकर परेशान हैं कुछ और खुश होने वाले भी अनेक।

मज़े उन्हीं के हैं जिन पर इन चीज़ों का असर नहीं पड़ता।

वे जानते हैं जो होना है वो तो होना ही है और हो भी रहा है तो फिर बेवजह बेकार की माथा-पच्ची करने से क्या लाभ?


संजय सेन सागर

मां तुम कहां हो

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है

वो तेरा सीने से लगाना,



आंचल में सुलाना याद आता है।

क्यों तुम मुझसे दूर गई,



किस बात पर तुम रूठी हो,

मैं तो झट से हंस देता था।



पर तुम तो

अब तक रूठी हो।



रोता है हर पल दिल मेरा,

तेरे खो जाने के बाद,



गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,

तेरे सो जाने के बाद।



मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,

अब तक दिल में भीनी है।



इस दुनिया में न कुछ अपना,

सब पत्थर दिल बसते हैं,



एक तू ही सत्य की मूरत थी,

तू भी तो अब खोई है।



आ जाओ न अब सताओ,

दिल सहम सा जाता है,



अंधेरी सी रात में

मां तेरा चेहरा नजर आता है।



आ जाओ बस एक बार मां

अब ना तुम्हें सताउंगा,



चाहे निकले

जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।



आ जाओ ना मां तुम,

मेरा दम निकल सा जाता है।



हर लम्हा इसी तरह ,

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।



.