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"पटकथा / पृष्ठ 1 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

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जब मैं बाहर आया<br>
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मेरे हाथों में<br>
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एक कविता थी और दिमाग में<br>
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एक कविता थी और दिमाग में
आँतों का एक्स-रे।<br>
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वह काला धब्बा<br>
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दवा का ट्रेडमार्क<br>
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दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।<br>
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मैंने सोचा !<br>
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क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच<br>
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अपनी भूख को ज़िन्दा रखना<br>
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अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की<br>
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जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।<br>
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मैंने सोचा और संस्कार के<br>
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मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाकों में<br>
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अपनी आदतों का शिकार<br>
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अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।<br>
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बाहर हवा थी<br>
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मैंने कहा आजादी…<br>
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मैंने यही कहा था<br>
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मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली<br>
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मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी<br>
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दौड़ रही थी
उत्साह में<br>
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खुद मेरा स्वर<br>
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ख़ुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था<br>
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मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-जा-दी<br>
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और दौड़ता हुआ खेतों की ओर<br>
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और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
गया। वहाँ कतार के कतार<br>
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अनाज के अँकुए फूट रहे थे<br>
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वहाँ कतार के कतार
मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये<br>
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अनाज के अँकुए फूट रहे थे
बच्चे। तारों पर<br>
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मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये
चिडि़याँ चहचहा रही थीं<br>
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मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…<br>
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तारों पर
खेत की मेड़ पार करते हुये<br>
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चिड़ियाँ चहचहा रही थीं
मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी<br>
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मैंने कहा- काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…
सड़क पर जाते हुये आदमी से<br>
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खेत की मेड़ पार करते हुये
उसका नाम पूछा<br>
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मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
और कहा- बधाई…<br>
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सड़क पर जाते हुये आदमी से
घर लौटकर<br>
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उसका नाम पूछा
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं<br>
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और कहा- बधाई…
पुरानी तस्वीरों को दीवार से<br>
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घर लौटकर
उतारकर<br>
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मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
उन्हें साफ किया<br>
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पुरानी तस्वीरों को दीवार से
और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)<br>
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उतारकर
पोंछकर टाँग दिया।<br>
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उन्हें साफ किया
मैंने दरवाजे के बाहर<br>
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और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
एक पौधा लगाया और कहा–<br>
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पोंछकर टाँग दिया।
वन महोत्सव…<br>
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मैंने दरवाजे के बाहर
और देर तक<br>
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एक पौधा लगाया और कहा–
हवा में गरदन उचका-उचकाकर<br>
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वन महोत्सव…
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा<br>
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और देर तक
देर तक महसूस करता रहा–<br>
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हवा में गरदन उचका-उचकाकर
कि मेरे भीतर<br>
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लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
वक्त का सामना करने के लिये<br>
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देर तक महसूस करता रहा–
औसतन ,जवान खून है<br>
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कि मेरे भीतर
मगर ,मुझे शान्ति चाहिये<br>
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वक़्त का सामना करने के लिये
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया<br>
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औसतन,जवान खून है
‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’<br>
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मगर, मुझे शान्ति चाहिये
और चहकते हुये कहा<br>
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इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
यही मेरी आस्था है<br>
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‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’
यही मेरा कानून है।<br>
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और चहकते हुये कहा
इस तरह जो था उसे मैंने<br>
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यही मेरी आस्था है
जी भरकर प्यार किया<br>
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यही मेरा कानून है।
और जो नहीं था<br>
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इस तरह जो था उसे मैंने
उसका इंतज़ार किया।<br>
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जी भरकर प्यार किया
मैंने इंतज़ार किया–<br>
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और जो नहीं था
अब कोई बच्चा<br>
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उसका इंतज़ार किया।
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा<br>
+
मैंने इंतज़ार किया–
अब कोई छत बारिश में<br>
+
अब कोई बच्चा
नहीं टपकेगी।<br>
+
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में<br>
+
अब कोई छत बारिश में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा<br>
+
नहीं टपकेगी।
अब कोई दवा के अभाव में<br>
+
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा<br>
+
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा<br>
+
अब कोई दवा के अभाव में
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा<br>
+
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब यह ज़मीन अपनी है<br>
+
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
आसमान अपना है<br>
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कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
जैसा पहले हुआ करता था…<br>
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अब यह ज़मीन अपनी है
सूर्य,हमारा सपना है<br>
+
आसमान अपना है
मैं इन्तजा़र करता रहा..<br>
+
जैसा पहले हुआ करता था…
इन्तजा़र करता रहा…<br>
+
सूर्य, हमारा सपना है
इन्तजा़र करता रहा…<br>
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मैं इन्तजा़र करता रहा..
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…<br>
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इन्तजा़र करता रहा…
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…<br>
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इन्तजा़र करता रहा…
ये सारे शब्द थे<br>
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जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
सुनहरे वादे थे<br>
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संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
खुशफ़हम इरादे थे<br>
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ये सारे शब्द थे
सुन्दर थे<br>
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सुनहरे वादे थे
मौलिक थे<br>
+
ख़ुशफ़हम इरादे थे
मुखर थे<br>
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सुन्दर थे
मैं सुनता रहा…<br>
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मौलिक थे
सुनता रहा…<br>
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मुखर थे
सुनता रहा…<br>
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मैं सुनता रहा…
मतदान होते रहे<br>
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सुनता रहा…
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे<br>
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सुनता रहा…
उसी लोकनायक को<br>
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मतदान होते रहे
बार-बार चुनता रहा<br>
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मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
जिसके पास हर शंका और<br>
+
उसी लोकनायक को
हर सवाल का<br>
+
बार-बार चुनता रहा
एक ही जवाब था<br>
+
जिसके पास हर शंका और
यानी कि कोट के बटन-होल में<br>
+
हर सवाल का
महकता हुआ एक फूल<br>
+
एक ही जवाब था
गुलाब का।<br>
+
या कि कोट के बटन-होल में
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र<br>
+
महकता हुआ एक फूल
समझाता रहा। मैं खुद को<br>
+
गुलाब का।
समझाता रहा-’जो मैं चाहता हूँ-<br>
+
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल<br>
+
समझाता रहा।  
 +
मैं ख़ुद को
 +
समझाता रहा- 'जो मैं चाहता हूँ-
 +
वही होगा।  
 +
होगा-आज नहीं तो कल
 
मगर सब कुछ सही होगा।
 
मगर सब कुछ सही होगा।
 +
</poem>

11:45, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

जब मैं बाहर आया
मेरे हाथों में
एक कविता थी और दिमाग में
आँतों का एक्स-रे।
वह काला धब्बा
कल तक एक शब्द था;
खून के अँधेर में
दवा का ट्रेडमार्क
बन गया था।
औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद
अपनी ऊब का
दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।
मैंने सोचा!
क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।
मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।
बाहर हवा थी
धूप थी
घास थी
मैंने कहा आज़ादी…
मुझे अच्छी तरह याद है-
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
ख़ुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-ज़ा-दी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
गया।
वहाँ कतार के कतार
अनाज के अँकुए फूट रहे थे
मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये
बच्चे।
तारों पर
चिड़ियाँ चहचहा रही थीं
मैंने कहा- काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…
खेत की मेड़ पार करते हुये
मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
सड़क पर जाते हुये आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा- बधाई…
घर लौटकर
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उतारकर
उन्हें साफ किया
और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
पोंछकर टाँग दिया।
मैंने दरवाजे के बाहर
एक पौधा लगाया और कहा–
वन महोत्सव…
और देर तक
हवा में गरदन उचका-उचकाकर
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
देर तक महसूस करता रहा–
कि मेरे भीतर
वक़्त का सामना करने के लिये
औसतन,जवान खून है
मगर, मुझे शान्ति चाहिये
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’
और चहकते हुये कहा
यही मेरी आस्था है
यही मेरा कानून है।
इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था
उसका इंतज़ार किया।
मैंने इंतज़ार किया–
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह ज़मीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था…
सूर्य, हमारा सपना है
मैं इन्तजा़र करता रहा..
इन्तजा़र करता रहा…
इन्तजा़र करता रहा…
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
ख़ुशफ़हम इरादे थे
सुन्दर थे
मौलिक थे
मुखर थे
मैं सुनता रहा…
सुनता रहा…
सुनता रहा…
मतदान होते रहे
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
या कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा।
मैं ख़ुद को
समझाता रहा- 'जो मैं चाहता हूँ-
वही होगा।
होगा-आज नहीं तो कल
मगर सब कुछ सही होगा।