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+ | <poem> | ||
+ | आज की रात | ||
+ | हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं? | ||
− | + | हवा के हर झोंके का स्पर्श | |
− | + | सारे तन को झनझना क्यों जाता है? | |
− | + | और यह क्यों लगता है | |
− | + | कि यदि और कोई नहीं तो | |
+ | यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही | ||
+ | मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को | ||
+ | पी जाने के लिए तत्पर है | ||
− | और | + | और ऐसा क्यों भान होने लगा है |
− | कि | + | कि मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठ |
− | + | मेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं हैं- | |
− | मेरे | + | मेरे वश में नहीं हैं-बेबस |
− | + | एक-एक घूँट की तरह | |
+ | अँधियारे में उतरते जा रहे हैं | ||
+ | खोते जा रहे हैं | ||
+ | मिटते जा रहे हैं | ||
− | और | + | और भय, |
− | + | आदिम भय, तर्कहीन, कारणहीन भय जो | |
− | + | मुझे तुमसे दूर ले गया था, बहुत दूर- | |
− | मेरे | + | क्या इसी लिए कि मुझे |
− | एक-एक | + | दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे |
− | + | और क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ हैं | |
− | + | जो मेरे एक-एक बन्धन को शिथिल | |
− | + | करती जा रही हैं | |
+ | और मैं कुछ कह नहीं पाती! | ||
− | और | + | मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं |
− | + | और कण्ठ सूख रहा है | |
− | + | और पलकें आधी मुँद गयी हैं | |
− | + | और सारे जिस्म में जैसे प्राण नहीं हैं | |
− | + | ||
− | और | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | और | + | |
− | + | मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है | |
− | + | और जकड़ती जा रही हूँ | |
− | और | + | और निकट, और निकट |
− | और | + | कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायें |
+ | तुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित हो जायें | ||
+ | तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं में प्रवाहित होकर | ||
+ | फिर से जीवन संचरित कर सके- | ||
− | + | और यह मेरा कसाव निर्मम है | |
− | और | + | और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें |
− | और | + | नागवधू की गुंजलक की भाँति |
− | + | कसती जा रही हैं | |
− | + | और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर | |
− | + | नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्न | |
− | + | उभर आये हैं | |
+ | और तुम व्याकुल हो उठे हो | ||
+ | धूप में कसे | ||
+ | अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध | ||
+ | हहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से- | ||
+ | छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरह | ||
+ | बेचैन- | ||
− | + | ………………………………………. | |
− | + | …………………………………. | |
− | + | …………………………… | |
− | + | ……………………. | |
− | + | ||
− | + | ||
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− | + | ||
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− | + | ||
− | + | – | |
− | + | उठो मेरे प्राण | |
− | + | और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है | |
− | + | पर आज मैं उधर नहीं देखना चाहती | |
+ | यह प्रगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती | ||
+ | ग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों की | ||
+ | ज्योतिर्माला मैं ही हूँ | ||
+ | और अंख्य ब्रह्माण्डों का | ||
+ | दिशाओं का, समय का | ||
+ | अनन्त प्रवाह मैं ही हूँ | ||
+ | पर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हूँ | ||
+ | उठो और वातायन बन्द कर दो | ||
+ | कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैं | ||
+ | और हवा का आघात भी मांसल हो उठा है | ||
+ | और मैं अपने से ही भयभीत हूँ | ||
− | + | – | |
− | + | …………………………………. | |
− | + | ……………………………………… | |
− | + | लो मेरे असमंजस! | |
− | + | अब मैं उन्मुक्त हूँ | |
− | और | + | और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं |
− | + | प्रतीक्षा के क्षण हैं | |
− | + | और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं | |
− | + | पगडण्डियाँ हैं | |
− | + | और मेरा यह सारा | |
− | + | हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली | |
− | + | धूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्म | |
− | + | अब जिस्म नहीं- | |
+ | सिर्फ एक पुकार है | ||
− | + | उठो मेरे उत्तर! | |
+ | और पट बन्द कर दो | ||
+ | और कह दो इस समुद्र से | ||
+ | कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ | ||
+ | और कह दो दिशाओं से | ||
+ | कि वे हमारे कसाव में आज | ||
+ | घुल जाएँ | ||
− | + | और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से | |
− | + | कि अपने शायक उतार कर | |
+ | तरकस में रख ले | ||
+ | और तोड़ दे अपना धनुष | ||
+ | और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप | ||
+ | प्रतीक्षा करे- | ||
+ | जब तक मैं | ||
+ | अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्न | ||
+ | अपने अधरों से | ||
+ | तुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक कर | ||
+ | शैथिल्य की बाँहों में | ||
+ | डूब न जाऊँ….. | ||
− | + | आओ मेरे अधैर्य! | |
− | + | दिशाएँ घुल गयी हैं | |
− | + | जगत् लीन हो चुका है | |
− | + | समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है। | |
− | + | और इस निखिल सृष्टि के | |
− | + | अपार विस्तार में | |
− | और | + | तुम्हारे साथ मैं हूँ - केवल मैं- |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
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− | + | तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!</poem> | |
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− | तुम्हारी अंतरंग केलिसखी! | + |
04:22, 21 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
आज की रात
हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं?
हवा के हर झोंके का स्पर्श
सारे तन को झनझना क्यों जाता है?
और यह क्यों लगता है
कि यदि और कोई नहीं तो
यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही
मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को
पी जाने के लिए तत्पर है
और ऐसा क्यों भान होने लगा है
कि मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठ
मेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं हैं-
मेरे वश में नहीं हैं-बेबस
एक-एक घूँट की तरह
अँधियारे में उतरते जा रहे हैं
खोते जा रहे हैं
मिटते जा रहे हैं
और भय,
आदिम भय, तर्कहीन, कारणहीन भय जो
मुझे तुमसे दूर ले गया था, बहुत दूर-
क्या इसी लिए कि मुझे
दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे
और क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ हैं
जो मेरे एक-एक बन्धन को शिथिल
करती जा रही हैं
और मैं कुछ कह नहीं पाती!
मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं
और कण्ठ सूख रहा है
और पलकें आधी मुँद गयी हैं
और सारे जिस्म में जैसे प्राण नहीं हैं
मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है
और जकड़ती जा रही हूँ
और निकट, और निकट
कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायें
तुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित हो जायें
तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं में प्रवाहित होकर
फिर से जीवन संचरित कर सके-
और यह मेरा कसाव निर्मम है
और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें
नागवधू की गुंजलक की भाँति
कसती जा रही हैं
और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर
नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्न
उभर आये हैं
और तुम व्याकुल हो उठे हो
धूप में कसे
अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध
हहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से-
छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरह
बेचैन-
……………………………………….
………………………………….
……………………………
…………………….
–
उठो मेरे प्राण
और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो
यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है
पर आज मैं उधर नहीं देखना चाहती
यह प्रगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती
ग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों की
ज्योतिर्माला मैं ही हूँ
और अंख्य ब्रह्माण्डों का
दिशाओं का, समय का
अनन्त प्रवाह मैं ही हूँ
पर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हूँ
उठो और वातायन बन्द कर दो
कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैं
और हवा का आघात भी मांसल हो उठा है
और मैं अपने से ही भयभीत हूँ
–
………………………………….
………………………………………
लो मेरे असमंजस!
अब मैं उन्मुक्त हूँ
और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं
प्रतीक्षा के क्षण हैं
और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं
पगडण्डियाँ हैं
और मेरा यह सारा
हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली
धूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्म
अब जिस्म नहीं-
सिर्फ एक पुकार है
उठो मेरे उत्तर!
और पट बन्द कर दो
और कह दो इस समुद्र से
कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ
और कह दो दिशाओं से
कि वे हमारे कसाव में आज
घुल जाएँ
और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से
कि अपने शायक उतार कर
तरकस में रख ले
और तोड़ दे अपना धनुष
और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप
प्रतीक्षा करे-
जब तक मैं
अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्न
अपने अधरों से
तुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक कर
शैथिल्य की बाँहों में
डूब न जाऊँ…..
आओ मेरे अधैर्य!
दिशाएँ घुल गयी हैं
जगत् लीन हो चुका है
समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है।
और इस निखिल सृष्टि के
अपार विस्तार में
तुम्हारे साथ मैं हूँ - केवल मैं-
तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!