भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मृत्तिका दीप / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=शिवमंगल सिंह सुमन | |
+ | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
+ | {{Template:KKAnthologyDiwali}} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | मृत्तिका का दीप तब तक जलेगा अनिमेष | ||
+ | एक भी कण स्नेह का जब तक रहेगा शेष। | ||
− | + | हाय जी भर देख लेने दो मुझे | |
+ | मत आँख मीचो | ||
+ | और उकसाते रहो बाती | ||
+ | न अपने हाथ खींचो | ||
+ | प्रात जीवन का दिखा दो | ||
+ | फिर मुझे चाहे बुझा दो | ||
+ | यों अंधेरे में न छीनो- | ||
+ | हाय जीवन-ज्योति के कुछ क्षीण कण अवशेष। | ||
− | + | तोड़ते हो क्यों भला | |
− | + | जर्जर रूई का जीर्ण धागा | |
+ | भूल कर भी तो कभी | ||
+ | मैंने न कुछ वरदान माँगा | ||
+ | स्नेह की बूँदें चुवाओ | ||
+ | जी करे जितना जलाओ | ||
+ | हाथ उर पर धर बताओ | ||
+ | क्या मिलेगा देख मेरा धूम्र कालिख वेश। | ||
− | + | शांति, शीतलता, अपरिचित | |
− | + | जलन में ही जन्म पाया | |
− | + | स्नेह आँचल के सहारे | |
− | + | ही तुम्हारे द्वार आया | |
− | + | और फिर भी मूक हो तुम | |
− | + | यदि यही तो फूँक दो तुम | |
− | + | फिर किसे निर्वाण का भय | |
− | + | जब अमर ही हो चुकेगा जलन का संदेश। | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | शांति, शीतलता, अपरिचित | + | |
− | जलन में ही जन्म पाया | + | |
− | स्नेह आँचल के सहारे | + | |
− | ही तुम्हारे द्वार आया | + | |
− | और फिर भी मूक हो तुम | + | |
− | यदि यही तो फूँक दो तुम | + | |
− | फिर किसे निर्वाण का भय | + | |
− | जब अमर ही हो चुकेगा जलन का | + |
10:11, 5 अगस्त 2013 के समय का अवतरण
मृत्तिका का दीप तब तक जलेगा अनिमेष
एक भी कण स्नेह का जब तक रहेगा शेष।
हाय जी भर देख लेने दो मुझे
मत आँख मीचो
और उकसाते रहो बाती
न अपने हाथ खींचो
प्रात जीवन का दिखा दो
फिर मुझे चाहे बुझा दो
यों अंधेरे में न छीनो-
हाय जीवन-ज्योति के कुछ क्षीण कण अवशेष।
तोड़ते हो क्यों भला
जर्जर रूई का जीर्ण धागा
भूल कर भी तो कभी
मैंने न कुछ वरदान माँगा
स्नेह की बूँदें चुवाओ
जी करे जितना जलाओ
हाथ उर पर धर बताओ
क्या मिलेगा देख मेरा धूम्र कालिख वेश।
शांति, शीतलता, अपरिचित
जलन में ही जन्म पाया
स्नेह आँचल के सहारे
ही तुम्हारे द्वार आया
और फिर भी मूक हो तुम
यदि यही तो फूँक दो तुम
फिर किसे निर्वाण का भय
जब अमर ही हो चुकेगा जलन का संदेश।