Last modified on 25 मई 2020, at 15:20

"तुम्हारे साथ रहकर / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
 
|रचनाकार=सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
 
}}
 
}}
तुम्हारे साथ रहकर<br>
+
{{KKVID|v=X7VPPxJjMG0}}
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है<br>
+
{{KKCatKavita}}
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,<br>
+
<poem>
हर रास्ता छोटा हो गया है,<br>
+
तुम्हारे साथ रहकर
दुनिया सिमटकर<br>
+
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
एक आँगन-सी बन गयी है<br>
+
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
जो खचाखच भरा है,<br>
+
हर रास्ता छोटा हो गया है,
कहीं भी एकान्त नहीं<br>
+
दुनिया सिमटकर
न बाहर, न भीतर।<br><br>
+
एक आँगन-सी बन गयी है
 +
जो खचाखच भरा है,
 +
कहीं भी एकान्त नहीं
 +
न बाहर, न भीतर।
  
हर चीज़ का आकार घट गया है,<br>
+
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं<br>
+
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख<br>
+
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,<br>
+
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,<br>
+
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।<br><br>
+
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
  
तुम्हारे साथ रहकर<br>
+
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है<br>
+
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,<br>
+
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक की घास के हिलने का भी,<br>
+
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,<br>
+
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर<br>
+
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।<br><br>
+
चढ़कर चले जाने का।
  
तुम्हारे साथ रहकर<br>
+
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है<br>
+
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं<br>
+
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,<br>
+
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है<br>
+
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा<br>
+
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।<br><br>
+
पहाड़ गुज़र सकता है।
  
शक्ति अगर सीमित है<br>
+
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,<br>
+
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,<br>
+
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,<br>
+
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,<br>
+
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है<br>
+
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।<br><br>
+
वह नियति की नहीं मेरी है।

15:20, 25 मई 2020 के समय का अवतरण

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।