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"कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 4" के अवतरणों में अंतर

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किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में<br>
 
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पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे!<br><br>
 
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आ गया हो द्वार पर ललकारता।<br><br>
 
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जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए<br>
 
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जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर।<br><br>
 
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पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे<br>
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बद्ध, विदलित और साधनहीन को<br>
 
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वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?<br><br>
 
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जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ<br>
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और जो अनिवार्य है, उसके लिए<br>
 
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फूटती निश्चय किसी भी व्याज से।<br><br>
 
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धर्म का है एक और रहस्य भी,<br>
 
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20:10, 21 अगस्त 2008 के समय का अवतरण


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किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में
पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे;
युद्ध में मारे हुओं के सामने
पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे!

और भी थे भाव उनके हृदय में,
स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के;
खींच कर जिसने उन्हें आगे किया,
हेतु उस आवेश का था और भी।

युद्ध का उन्माद संक्रमशील है,
एक चिनगारी कहीं जागी अगर,
तुरत बह उठते पवन उनचास हैं,
दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।

और तब रहता कहाँ अवकाश है
तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का?
युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं
प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को।

युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से
दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;
चाहता नस तोड़कर बहना लहू,
आ स्वयं तलवार जाती हाथ में।

रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या?
शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।

है मृषा तेरे हृदय की जल्पना,
युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;
क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं,
जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।

सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,
'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,
मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में
भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।'

औ' समर तो और भी अपवाद है,
चाहता कोई नहीं इसको मगर,
जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब
आ गया हो द्वार पर ललकारता।

है बहुत देखा-सुना मैंने मगर,
भेद खुल पाया न धर्माधर्म का,
आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर
बाँट दूँ मैं पुण्य औ' पाप को।

जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए
चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर।

छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप के काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।

बद्ध, विदलित और साधनहीन को
है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?

युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ
भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,
युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।

और जो अनिवार्य है, उसके लिए
खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है।
तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह
फूटती निश्चय किसी भी व्याज से।

पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी
रुक न सकता था सहज विस्फोट यह
ध्वंस से सिर मारने को थे तुले
ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के।

धर्म का है एक और रहस्य भी,
अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे?
दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर
हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से।

व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।

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