कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 3
और तब चुप हो रहे कौन्तेय,
संयमित करके किसी विध शोक दुष्परिमेय
उस जलद-सा एक पारावार
हो भरा जिसमें लबालब, किन्तु, जो लाचार
बरस तो सकता नहीं, रहता मगर बेचैन है।
- भीष्म ने देखा गगन की ओर
- मापते, मानो, युधिष्ठिर के हृदय का छोर;
- और बोले, 'हाय नर के भाग !
- क्या कभी तू भी तिमिर के पार
- उस महत् आदर्श के जग में सकेगा जाग,
- एक नर के प्राण में जो हो उठा साकार है
- आज दुख से, खेद से, निर्वेद के आघात से?'
- भीष्म ने देखा गगन की ओर
औ' युधिष्ठिर से कहा, "तूफान देखा है कभी?
किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ,
काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता,
और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से
उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं?
रुग्ण शाखाएँ द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं,
टूट गिरते गिरते शावकों के साथ नीड़ विहंग के;
अंग भर जाते वनानी के निहत तरु, गुल्म से,
छिन्न फूलों के दलों से, पक्षियों की देह से।
- पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी,
- वह नहीं भयभीत होता क्रूर झंझावात से।
- सीस पर बहता हुआ तूफान जाता है चला,
- नोचता कुछ पत्र या कुछ डालियों को तोड़ता।
- किन्तु, इसके बाद जो कुछ शेष रह जाता, उसे,
- (वन-विभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को)
- देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से,
- क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में,
- सोचता, 'है भेजती हुमको प्रकृति तूफ़ान क्यों?'
- पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी,
पर नहीं यह ज्ञात, उस जड़ वृक्ष को,
प्रकृति भी तो है अधीन विमर्ष के।
यह प्रभंजन शस्त्र है उसका नहीं;
किन्तु, है आवेगमय विस्फोट उसके प्राण का,
जो जमा होता प्रचंड निदाघ से,
फूटना जिसका सहज अनिवार्य है।
- यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी
- एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से,
- तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का,
- और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी
- क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से।
- भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी
- युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता
- राजनैतिक उलझनों के ब्याज से
- या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले।
- यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी
किन्तु, सबके मूल में रहता हलाहल है वही,
फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से।
- युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,
- जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है!
- सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए!
- युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,