"कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 3" के अवतरणों में अंतर
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अनुनय के प्यारे-प्यारे।<br><br> | अनुनय के प्यारे-प्यारे।<br><br> | ||
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सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'<br> | सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'<br> | ||
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− | बसती है दीप्ति विनय की,<br> | + | ::बसती है दीप्ति विनय की,<br> |
− | सन्धि-वचन संपूज्य उसी का<br> | + | ::सन्धि-वचन संपूज्य उसी का<br> |
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सहनशीलता, क्षमा, दया को<br> | सहनशीलता, क्षमा, दया को<br> | ||
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पीछे जब जगमग है।<br><br> | पीछे जब जगमग है।<br><br> | ||
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− | क्षमा वहाँ निष्फल है।<br> | + | ::क्षमा वहाँ निष्फल है।<br> |
− | गरल-घूँट पी जाने का<br> | + | ::गरल-घूँट पी जाने का<br> |
− | मिस है, वाणी का छल है।<br><br> | + | ::मिस है, वाणी का छल है।<br><br> |
फलक क्षमा का ओढ छिपाते<br> | फलक क्षमा का ओढ छिपाते<br> | ||
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नर की पौरुष-निर्भरता ?<br><br> | नर की पौरुष-निर्भरता ?<br><br> | ||
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− | जो लगते ही स्पर्श हृदय से<br> | + | ::जो लगते ही स्पर्श हृदय से<br> |
− | सिर तक उठता बल है? <br><br> | + | ::सिर तक उठता बल है? <br><br> |
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19:45, 21 अगस्त 2008 के समय का अवतरण
न्यायोचित अधिकार माँगने
से न मिलें, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को
जीत, या कि खुद मरके।
- किसने कहा, पाप है समुचित
- सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ?
- उठा न्याय क खड्ग समर में
- अभय मारना-मरना ?
- किसने कहा, पाप है समुचित
क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल
की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज, व्यंजित करते तुम
मानव की कदराई।
- हिंसा का आघात तपस्या ने
- कब, कहाँ सहा है ?
- देवों का दल सदा दानवों
- से हारता रहा है।
- हिंसा का आघात तपस्या ने
मनःशक्ति प्यारी थी तुमको
यदि पौरुष ज्वलन से,
लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?
फिर आये क्यों वन से?
- पिया भीम ने विष, लाक्षागृह
- जला, हुए वनवासी,
- केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
- कहलायी दासी
- पिया भीम ने विष, लाक्षागृह
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा?
- क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
- तुम हुए विनत जितना ही,
- दुष्ट कौरवों ने तुमको
- कायर समझा उतना ही।
- क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
- क्षमा शोभती उस भुजंग को,
- जिसके पास गरल हो।
- उसको क्या, जो दन्तहीन,
- विषरहित, विनीत, सरल हो ?
- क्षमा शोभती उस भुजंग को,
तीन दिवस तक पन्थ माँगते
रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
- उत्तर में जब एक नाद भी
- उठा नहीं सागर से,
- उठी अधीर धधक पौरुष की
- आग राम के शर से।
- उत्तर में जब एक नाद भी
सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ बन्धन में।
- सच पूछो, तो शर में ही
- बसती है दीप्ति विनय की,
- सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
- जिसमें शक्ति विजय की।
- सच पूछो, तो शर में ही
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
- जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,
- क्षमा वहाँ निष्फल है।
- गरल-घूँट पी जाने का
- मिस है, वाणी का छल है।
- जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,
फलक क्षमा का ओढ छिपाते
जो अपनी कायरता,
वे क्या जानें ज्वलित-प्राण
नर की पौरुष-निर्भरता ?
- वे क्या जानें नर में वह क्या
- असहनशील अनल है,
- जो लगते ही स्पर्श हृदय से
- सिर तक उठता बल है?
- वे क्या जानें नर में वह क्या