कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4
जिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं,
- जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का.
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
- चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का.
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
- ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका.
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
- बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का.
उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या,
- करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है.
करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे,
- ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है?
सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव,
- जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है.
करुणा, क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर,
- क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है.
प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त,
- प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है.
छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही,
- जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है.
चोट खा सहिष्णु व' रहेगा किस भाँति, तीर
- जिसके निषग में, करों में धृड चाप है.
जेता के विभूषण सहिष्णुता, क्षमा है पर,
- हारी हुई जाति की सहिष्णुताSभिशाप है.
सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,
- उठता कराल हो फणीश फुफकर है.
सुनता गजेंद्र की चिंघार जो वनों में कहीं,
- भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है.
शूल चुभते हैं, छूते आग है जलाती, भू को
- लीलने को देखो गर्जमान पारावार है.
जग में प्रदीप्त है इसी का तेज, प्रतिशोध
- जड़-चेतनों का जन्मसिद्ध अधिकार है.
सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति,
- लोभ की लड़ाई क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है.
वासना-विषय से नहीं पुण्य-उद्भूत होता,
- वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है.
चोट खा परन्तु जब सिंह उठता है जाग,
- उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है.
पुण्य खिलता है चंद्र-हास की विभा में तब,
- पौरुष की जागृति कहाती धर्म-युद्ध है.
धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत,
- कोई क्यों प्रचंड वेग वायु को बुलाता है?
फूटेंगे कराल ज्वालामुखियों के कंठ, ध्रुव
- आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है?
फूँक से जलाएगी अवश्य जगति को ब्याल,
- कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है?
विद्युत खगोल से अवश्य ही गिरेगी, कोई
- दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है?
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि
- वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता?
वह जो दबा है शोषणो के भीम शैल से या
- वह जो खड़ा है मग्न हँसता-मचलता?
वह जो बनाके शांति-व्यूह सुख लूटता या
- वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता?
- या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
- पातकी बताना उसे दर्शन कि भ्रांति है.
शोषणो के श्रंखला के हेतु बनती जो शांति,
- युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशांति है.
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व का है,
- ईश के अवज्ञा घोर, पौरुष कि श्रान्ति है.
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
- ऐसी श्रंखला में धर्म विप्लव है, क्रांति है.