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<div class='box' style="background-color:#DD5511;width:100%; align:center"><div class='boxtop'><div></div></div>
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<table width=100% style="background:transparent">
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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
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<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''पूरे हुए पचास वर्ष <br>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शलभ श्रीराम सिंह]]</td>
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</tr>
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</table>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
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<div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;">
'''आज़ादी की पचासवीं सालगिरह पर एक कविता'''
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खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार</div>
  
नाश्ते के लिए भुनी हुई स्त्री का गोश्त लाया जाए
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<div style="text-align: center;">
हाथ धोने के लिए अगवा किये गए
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रचनाकार: [[त्रिलोचन]]
किसी बच्चे की खोपड़ी में लाया जाए ठण्डा पानी
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</div>
शाल के बदले किसी निर्दोष नागरिक की चमड़ी लाई जाए
+
महामहिम परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं
+
  
भ्रष्ट्राचार  के पचास वर्ष पूरे हुए
+
<div style="background: #fff; border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; margin: 0 auto; padding: 0 20px; white-space: pre;">
बलात्कार और व्यभिचार के पचास वर्ष
+
खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
पूरे हुए पचास वर्ष हत्या और हाहाकार के
+
अपरिचित पास आओ
  
मानवता के सारे प्रतिमान ढहाए गए
+
आँखों में सशंक जिज्ञासा
बहाए गए घडियाली आँसूं जार-जार
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मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा
चढ़ाए गए आख़िरी ऊँचाई तक प्रार्थनाओं के स्वर
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जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं
भगवानों के घर जलाए और गिराए गए
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स्तम्भ शेष भय की परिभाषा
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हिलो-मिलो फिर एक डाल के
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खिलो फूल-से, मत अलगाओ
  
जी भर तबाह की गई दिलों की ख़ूबसूरती
+
सबमें अपनेपन की माया
वादियों और बस्तियों पर तैनात हुए सन्नाटे
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अपने पन में जीवन आया
गोलियों से खेले गए मज़हब और जबान के खेल
+
</div>
मेल बरकरार रखने के लिए हिन्दू-मुस्लिम -जैन-सिख ईसाई का
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</div></div>
नारा लगते हुए 'भाई-भाई' का, पूरे हुए पचास वर्ष
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सवाल उठाते-उठाते -
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बोलियाँ नंगी हो गई हैं भाषाएँ छिनाल
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मनों की सुन्दरता समाप्त हो गई हैं तनों के विज्ञापनों से
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फिर भी कुछ लोगों के लिए
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'मचलती और झूमती हुई आ रही है आज़ादी '
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बर्बादी का ऐसा बेशर्म जश्न कब और कहाँ मनाया गया है इतिहास में ?
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इस बीच लगातार हलाल हुए हैं भगत सिंहों के सपने
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बिस्मिलों की तमन्नाएँ ,अशफ़ाक‍उल्लाओं के जज्बात
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सुभाषों की ललकारें, गाँधीयों  के सन्देश और जयप्रकाशों की तड़प ,
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हिंसा और हड़प के पैरोकारों का ध्यान नहीं गया उधर
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कान नहीं गया किसी का दुर्घटना के इतनें कड़े कर्कश नाद पर
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भविष्य के अन्धेरों से भयभीत -
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रोशन उँगलियों की प्रतीक्षा करता रहा देश
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आज़ादी के पहले की बात और थी, आज़ादी के बाद की और है
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वह गुलामी का दौर था ,यह गुलामों का दौर है
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वनों की हरियाली नष्ट की गई इस बीच
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घोटा गया नदियों का गला
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पहाड़ों  की खाल खींची गई पूरी बेरहमी के साथ
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पशुओं की भूख तक भुनाई जा रही है शान से
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ईमान के गले पर पाँव रख कर की जा रही है बेईमानी
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जान और जहान से बड़ा हो गया है पैसा
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काहे की देशभक्ति ,नैतिकता काहे की, न्याय कैसा ?
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ज्ञान के मंदिरों में गुंडे तैयार किए जा रहे हैं यहाँ
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झकाझक परिधानों में विचर रहे हैं मूँछ मुंडे अपराधी
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पूरा का पूरा मुल्क इनके बाप की जागीर हो जैसे
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चारो ओर बोलबाला है तस्कर संस्कृति का
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रिश्वत-कमीशन-हवाला और घोटाला है चारों ओर
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और इस देश का परधान मन्तरी मजबूर है
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मजबूर है हमारा सब से बड़ा और विश्वसनीय सन्तरी
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एक सदा जीवित जन-संसार पर्दे के पीछे सरकाया जा रहा है
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दरकाया जा रहा है देश का भूगोल अपनी इच्छा भर
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दराँतियों से दराँतियाँ नहीं ,जातियों से जातियाँ भिड़ाई जा रही हैं
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वर्ण-विद्वेष की लडाइयाँ लडाई जा रही हैं ,वर्ग-संघर्ष  के बदले
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मूर्तियों की आड़ में जबरजोत की जंग जारी है
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एक ख़तरनाक चुप्पी तारी है कश्मीर से कन्याकुमारी तक
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उदार बनाये जाने के चक्कर में नगद से उधार होता जा रहा है देश
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उधार होता जा रहा है विश्वबाज़ार में बदलते हुए ख़ुद को
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जडी-बूटियों तक पर नहीं रह गया उसका अधिकार
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नीम तक को लाकर पटक दिया है बाज़ार की चौखट पर
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यह एक जीवित धिक्कार है हमारे लिए
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पिछले पचास वर्षों में इस देश की अंतरात्मा सो गई है
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गिद्धों और महागिद्धों की भूमि हो गई है इस देश की धरती
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सोने की चिड़िया की जान साँसत में है
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आफ़त में है कविता का एक-एक शब्द
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भ्रष्टाचार -बलात्कार -व्यभिचार -हत्या
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और हाहाकार के पचास वर्ष पूरे हुए
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परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं
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महामहिम
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19:38, 7 मार्च 2015 के समय का अवतरण

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार

रचनाकार: त्रिलोचन

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार अपरिचित पास आओ

आँखों में सशंक जिज्ञासा मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं स्तम्भ शेष भय की परिभाषा हिलो-मिलो फिर एक डाल के खिलो फूल-से, मत अलगाओ

सबमें अपनेपन की माया अपने पन में जीवन आया