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"हल्दीघाटी / षोडश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

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रचनाकार: [[श्यामनारायण पाण्डेय]]
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<poem>
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'''षोडश सर्ग: सगथी'''
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
आधी रात अँधेरी
 +
तम की घनता थी छाई।
 +
कमलों की आँखों से भी
 +
कुछ देता था न दिखाई॥1॥
  
<font size=4>षोडश सर्ग: सगथी</font><br><br>
+
पर्वत पर¸ घोर विजन में
 +
नीरवता का शासन था।
 +
गिरि अरावली सोया था
 +
सोया तमसावृत वन था॥2॥
  
आधी रात अंधेरी <Br/>
+
धीरे से तरू के पल्लव  
तम की घनता थी छाई। <Br/>
+
गिरते थे भू पर आकर।  
कमलों की आंखों से भी <Br/>
+
नीड़ों में खग सोये थे  
कुछ देता था न दिखाई।।1।। <Br/><Br/>
+
सन्ध्या को गान सुनाकर॥3॥
पर्वत पर¸ घोर विजन में <Br/>
+
 
नीरवता का शासन था। <Br/>
+
नाहर अपनी माँदों में  
गिरि अरावली सोया था <Br/>
+
मृग वन–लतिका झुरमुट में।  
सोया तमसावृत वन था।।2।। <Br/><Br/>
+
दृग मूंद सुमन सोये थे  
धीरे से तरू के पल्लव <Br/>
+
पंखुरियों के सम्पुट में॥4॥
गिरते थे भू पर आकर। <Br/>
+
 
नीड़ों में खग सोये थे <Br/>
+
गाकर मधु–गीत मनोहर  
सन्ध्या को गान सुनाकर।।3।। <Br/><Br/>
+
मधुमाखी मधुछातों पर।  
नाहर अपनी मांदों में <Br/>
+
सोई थीं बाल तितलियां  
मृग वन–लतिका झुरमुट में। <Br/>
+
मुकुलित नव जलजातों पर॥5॥
दृग मूंद सुमन सोये थे <Br/>
+
 
पंखुरियों के सम्पुट में।।4।। <Br/><Br/>
+
तिमिरालिंगन से छाया  
गाकर मधु–गीत मनोहर <Br/>
+
थी एकाकार निशा भर।  
मधुमाखी मधुछातों पर। <Br/>
+
सोई थी नियति अचल पर  
सोई थीं बाल तितलियां <Br/>
+
ओढ़े घन–तम की चादर॥6॥
मुकुलित नव जलजातों पर।।5।। <Br/><Br/>
+
 
तिमिरालिंगन से छाया <Br/>
+
आँखों के अन्दर पुतली  
थी एकाकार निशा भर। <Br/>
+
पुतली में तिल की रेखा।  
सोई थी नियति अचल पर <Br/>
+
उसने भी उस रजनी में  
ओढ़े घन–तम की चादर।।6।। <Br/><Br/>
+
केवल तारों को देखा॥7॥
आंखों के अन्दर पुतली <Br/>
+
 
पुतली में तिल की रेखा। <Br/>
+
वे नभ पर काँप रहे थे¸  
उसने भी उस रजनी में <Br/>
+
था शीत–कोप कंगलों में।  
केवल तारों को देखा।।7।। <Br/><Br/>
+
सूरज–मयंक सोये थे  
वे नभ पर कांप रहे थे¸ <Br/>
+
अपने–अपने बंगलों में॥8॥
था शीत–कोप कंगलों में। <Br/>
+
 
सूरज–मयंक सोये थे <Br/>
+
निशि–अंधियाली में निद्रित  
अपने–अपने बंगलों में।।8।। <Br/><Br/>
+
मारूत रूक–रूक चलता था।  
निशि–अंधियाली में निद्रित <Br/>
+
अम्बर था तुहिन बरसता  
मारूत रूक–रूक चलता था। <Br/>
+
पर्वत हिम–सा गलता था॥9॥
अम्बर था तुहिन बरसता <Br/>
+
 
पर्वत हिम–सा गलता था।।9।। <Br/><Br/>
+
हेमन्त–शिशिर का शासन¸  
हेमन्त–शिशिर का शासन¸ <Br/>
+
लम्बी थी रात विरह–सी।  
लम्बी थी रात विरह–सी। <Br/>
+
संयोग–सदृश लघु वासर¸  
संयोग–सदृश लघु वासर¸ <Br/>
+
दिनकर की छवि हिमकर–सी॥10॥
दिनकर की छवि हिमकर–सी।।10।। <Br/><Br/>
+
 
निर्धन के फटे पुराने <Br/>
+
निर्धन के फटे पुराने  
पट के छिद्रों से आकर¸ <Br/>
+
पट के छिद्रों से आकर¸  
शर–सदृश हवा लगती थी <Br/>
+
शर–सदृश हवा लगती थी  
पाषाण–हृदय दहला कर।।11।। <Br/><Br/>
+
पाषाण–हृदय दहला कर॥11॥
लगती चन्दन–सी शीतल <Br/>
+
 
पावक की जलती ज्वाला। <Br/>
+
लगती चन्दन–सी शीतल  
बाड़व भी कांप रहा था <Br/>
+
पावक की जलती ज्वाला।  
पहने तुषार की माला।।12।। <Br/><Br/>
+
बाड़व भी काँप रहा था  
जग अधर विकल हिलते थे <Br/>
+
पहने तुषार की माला॥12॥
चलदल के दल से थर–थर। <Br/>
+
 
ओसों के मिस नभ–दृग से <Br/>
+
जग अधर विकल हिलते थे  
बहते थे आंसू झर–झर।।13।। <Br/><Br/>
+
चलदल के दल से थर–थर।  
यव की कोमल बालों पर¸ <Br/>
+
ओसों के मिस नभ–दृग से  
मटरों की मृदु फलियों पर¸ <Br/>
+
बहते थे आँसू झर–झर॥13॥
नभ के आंसू बिखरे थे <Br/>
+
 
तीसी की नव कलियों पर।।14।। <Br/><Br/>
+
यव की कोमल बालों पर¸  
घन–हरित चने के पौधे¸ <Br/>
+
मटरों की मृदु फलियों पर¸  
जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸ <Br/>
+
नभ के आँसू बिखरे थे  
भिंग गये ओस के जल से <Br/>
+
तीसी की नव कलियों पर॥14॥
सरसों के पीत मुरेठे।।15।। <Br/><Br/>
+
 
वह शीत काल की रजनी <Br/>
+
घन–हरित चने के पौधे¸  
कितनी भयदायक होगी। <Br/>
+
जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸  
पर उसमें भी करता था <Br/>
+
भिंग गये ओस के जल से  
तप एक वियोगी योगी।।16।। <Br/><Br/>
+
सरसों के पीत मुरेठे॥15॥
वह नीरव निशीथिनी में¸ <Br/>
+
 
जिसमें दुनिया थी सोई। <Br/>
+
वह शीत काल की रजनी  
निझर्र की करूण–कहानी <Br/>
+
कितनी भयदायक होगी।  
बैठा सुनता था कोई।।17।। <Br/><Br/>
+
पर उसमें भी करता था  
उस निझर्र के तट पर ही <Br/>
+
तप एक वियोगी योगी॥16॥
राणा की दीन–कुटी थी। <Br/>
+
 
वह कोने में बैठा था¸ <Br/>
+
वह नीरव निशीथिनी में¸  
कुछ वंकिम सी भृकुटी थी।।18।। <Br/><Br/>
+
जिसमें दुनिया थी सोई।  
वह कभी कथा झरने की <Br/>
+
निझर्र की करूण–कहानी  
सुनता था कान लगाकर। <Br/>
+
बैठा सुनता था कोई॥17॥
वह कभी सिहर उठता था¸ <Br/>
+
 
मारूत के झोंके खाकर।।19।। <Br/><Br/>
+
उस निझर्र के तट पर ही  
नीहार–भार–नत मन्थर <Br/>
+
राणा की दीन–कुटी थी।  
निझर्र से सीकर लेकर¸ <Br/>
+
वह कोने में बैठा था¸  
जब कभी हवा चलती थी <Br/>
+
कुछ वंकिम सी भृकुटी थी॥18॥
पर्वत को पीड़ा देकर।।20।। <Br/><Br/>
+
 
तब वह कथरी के भीतर <Br/>
+
वह कभी कथा झरने की  
आहें भरता था सोकर। <Br/>
+
सुनता था कान लगाकर।  
वह कभी याद जननी की <Br/>
+
वह कभी सिहर उठता था¸  
करता था पागल होकर।।21।। <Br/><Br/>
+
मारूत के झोंके खाकर॥19॥
वह कहता था वैरी ने <Br/>
+
 
मेरे गढ़ पर गढ़ जीते। <Br/>
+
नीहार–भार–नत मन्थर  
वह कहता रोकर¸ मा की <Br/>
+
निझर्र से सीकर लेकर¸  
अब सेवा के दिन बीते।।22।। <Br/><Br/>
+
जब कभी हवा चलती थी  
यद्यपि जनता के उर में <Br/>
+
पर्वत को पीड़ा देकर॥20॥
मेरा ही अनुशासन है¸ <Br/>
+
 
पर इंच–इंच भर भू पर <Br/>
+
तब वह कथरी के भीतर  
अरि का चलता शासन है।।23।। <Br/><Br/>
+
आहें भरता था सोकर।  
दो चार दिवस पर रोटी <Br/>
+
वह कभी याद जननी की  
खाने को आगे आई। <Br/>
+
करता था पागल होकर॥21॥
केवल सूरत भर देखी <Br/>
+
 
फिर भगकर जान बचाई।24।। <Br/><Br/>
+
वह कहता था वैरी ने  
अब वन–वन फिरने के दिन <Br/>
+
मेरे गढ़ पर गढ़ जीते।  
मेरी रजनी जगने की। <Br/>
+
वह कहता रोकर¸ माँ की  
क्षण आंखों के लगते ही <Br/>
+
अब सेवा के दिन बीते॥22॥
आई नौबत भगने की।।25।। <Br/><Br/>
+
 
मैं बूझा रहा हूं शिशु को <Br/>
+
यद्यपि जनता के उर में  
कह–कहकर समर–कहानी। <Br/>
+
मेरा ही अनुशासन है¸  
बुद–बुद कुछ पका रही है <Br/>
+
पर इंच–इंच भर भू पर  
हा¸ सिसक–सिसककर रानी।।26।। <Br/><Br/>
+
अरि का चलता शासन है॥23॥
आंसू–जल पोंछ रही है <Br/>
+
 
चिर क्रीत पुराने पट से। <Br/>
+
दो चार दिवस पर रोटी  
पानी पनिहारिन–पलकें <Br/>
+
खाने को आगे आई।  
भरतीं अन्तर–पनघट से।।27।। <Br/><Br/>
+
केवल सूरत भर देखी  
तब तक चमकी वैरी–असि <Br/>
+
फिर भगकर जान बचाई।24॥
मैं भगकर छिपा अनारी। <Br/>
+
 
कांटों के पथ से भागी <Br/>
+
अब वन–वन फिरने के दिन  
हा¸ वह मेरी सुकुमारी।।28।। <Br/><Br/>
+
मेरी रजनी जगने की।  
तृण घास–पात का भोजन <Br/>
+
क्षण आँखों के लगते ही  
रह गया वहीं पकता ही। <Br/>
+
आई नौबत भगने की॥25॥
मैं झुरमुट के छिद्रों से <Br/>
+
 
रह गया उसे तकता ही।।29।। <Br/><Br/>
+
मैं बूझा रहा हूँ शिशु को  
चलते–चलते थकने पर <Br/>
+
कह–कहकर समर–कहानी।  
बैठा तरू की छाया में। <Br/>
+
बुद–बुद कुछ पका रही है  
क्षण भर ठहरा सुख आकर <Br/>
+
हा¸ सिसक–सिसककर रानी॥26॥
मेरी जर्जर–काया में।।30।। <Br/><Br/>
+
 
जल–हीन रो पड़ी रानी¸ <Br/>
+
आँसू–जल पोंछ रही है  
बच्चों को तृषित रूलाकर। <Br/>
+
चिर क्रीत पुराने पट से।  
कुश–कण्टक की शय्या पर <Br/>
+
पानी पनिहारिन–पलकें  
वह सोई उन्हें सुलाकर।।31।। <Br/><Br/>
+
भरतीं अन्तर–पनघट से॥27॥
तब तक अरि के आने की <Br/>
+
 
आहट कानों में आई। <Br/>
+
तब तक चमकी वैरी–असि  
बच्चों ने आंखें खोलीं <Br/>
+
मैं भगकर छिपा अनारी।  
कह–कहकर माई–माई।।32।। <Br/><Br/>
+
काँटों के पथ से भागी  
रव के भय से शिशु–मुख को <Br/>
+
हा¸ वह मेरी सुकुमारी॥28॥
वल्कल से बांध भगे हम। <Br/>
+
 
गह्वर में छिपकर रोने <Br/>
+
तृण घास–पात का भोजन  
रानी के साथ लगे हम।।33।। <Br/><Br/>
+
रह गया वहीं पकता ही।  
वह दिन न अभी भूला है¸ <Br/>
+
मैं झुरमुट के छिद्रों से  
भूला न अभी गह्नर है। <Br/>
+
रह गया उसे तकता ही॥29॥
सम्मुख दिखलाई देता <Br/>
+
 
वह आंखों का झर–झर है।।34।। <Br/><Br/>
+
चलते–चलते थकने पर  
जब सहन न होता¸ उठता <Br/>
+
बैठा तरू की छाया में।  
लेकर तलवार अकेला। <Br/>
+
क्षण भर ठहरा सुख आकर  
रानी कहती –– न अभी है <Br/>
+
मेरी जर्जर–काया में॥30॥
संगर करने की बेला।।35।। <Br/><Br/>
+
 
तब भी न तनिक रूकता तो <Br/>
+
जल–हीन रो पड़ी रानी¸  
बच्चे रोने लगते हैं। <Br/>
+
बच्चों को तृषित रूलाकर।  
खाने को दो कह–कहकर <Br/>
+
कुश–कण्टक की शय्या पर  
व्याकुल होने लगते हैं।।36।। <Br/><Br/>
+
वह सोई उन्हें सुलाकर॥31॥
मेरे निबर्ल हाथों से <Br/>
+
 
तलवार तुरत गिरती है। <Br/>
+
तब तक अरि के आने की  
इन आंखों की सरिता में <Br/>
+
आहट कानों में आई।  
पुतली–मछली तिरती है।।37।। <Br/><Br/>
+
बच्चों ने आँखें खोलीं  
हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल <Br/>
+
कह–कहकर माई–माई॥32॥
मेरा यह दुबर्ल तन है। <Br/>
+
 
इसको कहते जीवन क्या¸ <Br/>
+
रव के भय से शिशु–मुख को  
यह ही जीवन जीवन है।।38।। <Br/><Br/>
+
वल्कल से बाँध भगे हम।  
अब जननी के हित मुझको <Br/>
+
गह्वर में छिपकर रोने  
मेवाड़ छोड़ना होगा। <Br/>
+
रानी के साथ लगे हम॥33॥
कुछ दिन तक मां से नाता <Br/>
+
 
हा¸ विवश तोड़ना होगा।।39।। <Br/><Br/>
+
वह दिन न अभी भूला है¸  
अब दूर विजन में रहकर <Br/>
+
भूला न अभी गह्नर है।  
राणा कुछ कर सकता है। <Br/>
+
सम्मुख दिखलाई देता  
जिसकी गोदी में खेला¸ <Br/>
+
वह आँखों का झर–झर है॥34॥
उसका ऋण भर सकता है।।40।। <Br/><Br/>
+
 
यह कहकर उसने निशि में <Br/>
+
जब सहन न होता¸ उठता  
अपना परिवार जगाया। <Br/>
+
लेकर तलवार अकेला।  
आंखों में आंसू भरकर <Br/>
+
रानी कहती– न अभी है  
क्षण उनको गले लगाया।।41।। <Br/><Br/>
+
संगर करने की बेला॥35॥
बोला –्"तुम लोग यहीं से <Br/>
+
 
मां का अभिवादन कर लो। <Br/>
+
तब भी न तनिक रूकता तो  
अपने–अपने अन्तर में <Br/>
+
बच्चे रोने लगते हैं।  
जननी की सेवा भर लो।।42।। <Br/><Br/>
+
खाने को दो कह–कहकर  
चल दो¸ क्षण देर करो मत¸ <Br/>
+
व्याकुल होने लगते हैं॥36॥
अब समय न है रोने को। <Br/>
+
 
मेवाड़ न दे सकता है <Br/>
+
मेरे निबर्ल हाथों से  
तिल भर भी भू सोने को।।43।। <Br/><Br/>
+
तलवार तुरत गिरती है।  
चल किसी विजन कोने में <Br/>
+
इन आँखों की सरिता में  
अब शेष बिता दो जीवन। <Br/>
+
पुतली–मछली तिरती है॥37॥
इस दुखद भयावह ज्वर की <Br/>
+
 
यह ही है दवा सजीवन।्"।।44।। <Br/><Br/>
+
हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल  
सुन व्यथा–कथा रानी ने <Br/>
+
मेरा यह दुबर्ल तन है।  
आंचल का कोना धरकर¸ <Br/>
+
इसको कहते जीवन क्या¸  
कर लिया मूक अभिवादन <Br/>
+
यह ही जीवन जीवन है॥38॥
आंखों में पानी भरकर।।45।। <Br/><Br/>
+
 
हां¸ कांप उठा रानी के <Br/>
+
अब जननी के हित मुझको  
तन–पट का धागा–धागा। <Br/>
+
मेवाड़ छोड़ना होगा।  
कुछ मौन–मौन जब मां से <Br/>
+
कुछ दिन तक माँ से नाता  
अंचल पसार कर मांगा।।46।। <Br/><Br/>
+
हा¸ विवश तोड़ना होगा॥39॥
बच्चों ने भी रो–रोकर <Br/>
+
 
की विनय वन्दना मां की। <Br/>
+
अब दूर विजन में रहकर  
पत्थर भी पिघल रहा था <Br/>
+
राणा कुछ कर सकता है।  
वह देख–देखकर झांकी।।47।। <Br/><Br/>
+
जिसकी गोदी में खेला¸  
राणा ने मुकुट नवाया <Br/>
+
उसका ऋण भर सकता है॥40॥
चलने की हुई तैयारी। <Br/>
+
 
पत्नी शिशु लेकर आगे <Br/>
+
यह कहकर उसने निशि में  
पीछे पति वल्कल–धारी।।48।। <Br/><Br/>
+
अपना परिवार जगाया।  
तत्काल किसी के पद का <Br/>
+
आँखों में आँसू भरकर  
खुर–खुर रव दिया सुनाई। <Br/>
+
क्षण उनको गले लगाया॥41॥
कुछ मिली मनुज की आहट¸ <Br/>
+
 
फिर जय–जय की ध्वनि आई।।49। <Br/>
+
बोला "तुम लोग यहीं से  
राणा की जय राणा की <Br/>
+
माँ का अभिवादन कर लो।  
जय–जय राणा की जय हो। <Br/>
+
अपने–अपने अन्तर में  
जय हो प्रताप की जय हो¸ <Br/>
+
जननी की सेवा भर लो॥42॥
राणा की सदा विजय हो।।50।। <Br/><Br/>
+
 
वह ठहर गया रानी से <Br/>
+
चल दो¸ क्षण देर करो मत¸  
बोला – "मैं क्या हूं सोता? <Br/>
+
अब समय न है रोने को।  
मैं स्वप्न देखता हूं या <Br/>
+
मेवाड़ न दे सकता है  
भ्रम से ही व्याकुल होता।।51।। <Br/><Br/>
+
तिल भर भी भू सोने को॥43॥
तुम भी सुनती या मैं ही <Br/>
+
 
श्रुति–मधुर नाद सुनता हूं। <Br/>
+
चल किसी विजन कोने में  
जय–जय की मन्थर ध्वनि में <Br/>
+
अब शेष बिता दो जीवन।  
मैं मुक्तिवाद सुनता हूं।्"।।52।। <Br/><Br/>
+
इस दुखद भयावह ज्वर की  
तब तक भामा ने फेंकी <Br/>
+
यह ही है दवा सजीवन।"॥44॥
अपने हाथों की लकुटी। <Br/>
+
 
'मेरे शिशु्' कह राणा के <Br/>
+
सुन व्यथा–कथा रानी ने  
पैरों पर रख दी त्रिकुटी।।53।। <Br/><Br/>
+
आँचल का कोना धरकर¸  
आंसू से पद को धोकर <Br/>
+
कर लिया मूक अभिवादन  
धीमे–धीमे वह बोला – <Br/>
+
आँखों में पानी भरकर॥45॥
"यह मेरी सेवा्" कहकर <Br/>
+
 
थ्ौलों के मुंह को खोला।।54।। <Br/><Br/>
+
हाँ¸ काँप उठा रानी के  
खन–खन–खन मणिमुद्रा की <Br/>
+
तन–पट का धागा–धागा।  
मुक्ता की राशि लगा दी। <Br/>
+
कुछ मौन–मौन जब माँ से  
रत्नों की ध्वनि से बन की <Br/>
+
अंचल पसार कर माँगा॥46॥
नीरवता सकल भगा दी।।55।। <Br/><Br/>
+
 
"एकत्र करो इस धन से <Br/>
+
बच्चों ने भी रो–रोकर  
तुम सेना वेतन–भोगी। <Br/>
+
की विनय वन्दना माँ की।  
तुम एक बार फिर जूझो <Br/>
+
पत्थर भी पिघल रहा था  
अब विजय तुम्हारी होगी।।56।। <Br/><Br/>
+
वह देख–देखकर झाँकी॥47॥
कारागृह में बन्दी मां <Br/>
+
 
नित करती याद तुम्हें है। <Br/>
+
राणा ने मुकुट नवाया  
तुम मुक्त करो जननी को <Br/>
+
चलने की हुई तैयारी।  
यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।्"।।57।। <Br/><Br/>
+
पत्नी शिशु लेकर आगे  
वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी <Br/>
+
पीछे पति वल्कल–धारी॥48॥
लग गया हांफने कहकर। <Br/>
+
 
गिर पड़ी लार अवनी पर¸ <Br/>
+
तत्काल किसी के पद का  
हा उसके मुख से बहकर।।58।। <Br/><Br/>
+
खुर–खुर रव दिया सुनाई।  
वह कह न सका कुछ आगे¸ <Br/>
+
कुछ मिली मनुज की आहट¸  
सब भूल गया आने पर। <Br/>
+
फिर जय–जय की ध्वनि आई॥49।
कटि–जानु थामकर बैठा <Br/>
+
राणा की जय राणा की  
वह भू पर थक जाने पर।।59।। <Br/><Br/>
+
जय–जय राणा की जय हो।  
राणा ने गले लगाया <Br/>
+
जय हो प्रताप की जय हो¸  
कायरता धो लेने पर। <Br/>
+
राणा की सदा विजय हो॥50॥
फिर बिदा किया भामा को <Br/>
+
 
घुल–घुल कर रो लेने पर।।60।। <Br/><Br/>
+
वह ठहर गया रानी से  
खुल गये कमल–कोषों के <Br/>
+
बोला – "मैं क्या हूँ सोता?  
कारागृह के दरवाजे। <Br/>
+
मैं स्वप्न देखता हूँ या  
उससे बन्दी अलि निकले <Br/>
+
भ्रम से ही व्याकुल होता॥51॥
सेंगर के बाजे–बाजे।।61।। <Br/><Br/>
+
 
उषा ने राणा के सिर <Br/>
+
तुम भी सुनती या मैं ही  
सोने का ताज सजाया। <Br/>
+
श्रुति–मधुर नाद सुनता हूँ।
उठकर मेवाड़–विजय का <Br/>
+
जय–जय की मन्थर ध्वनि में  
खग–कुल ने गाना गाया।।62।। <Br/><Br/>
+
मैं मुक्तिवाद सुनता हूँ।"॥52॥
कोमल–कोमल पत्तों में <Br/>
+
 
फूलों को हंसते देखा। <Br/>
+
तब तक भामा ने फेंकी  
खिंच गई वीर के उर में <Br/>
+
अपने हाथों की लकुटी।  
आशा की पतली रेखा।।63।। <Br/><Br/>
+
'मेरे शिशु्' कह राणा के  
उसको बल मिला हिमालय का¸ <Br/>
+
पैरों पर रख दी त्रिकुटी॥53॥
जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली। <Br/>
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वर मिला उसे प्रलयंकर का¸ <Br/>
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आँसू से पद को धोकर  
उसको चण्डी की शक्ति मिली।।64।। <Br/><Br/>
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धीमे–धीमे वह बोला –  
सूरज का उसको तेज मिला¸ <Br/>
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"यह मेरी सेवा्" कहकर  
नाहर समान वह गरज उठा। <Br/>
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थैलों के मुँह को खोला॥54॥
पर्वत पर झण्डा फइराकर <Br/>
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सावन–घन सा वह गरज उठा।।65। <Br/>
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खन–खन–खन मणिमुद्रा की  
तलवार निकाली¸ चमकाई¸ <Br/>
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मुक्ता की राशि लगा दी।  
अम्बर में फेरी घूम–घूम। <Br/>
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रत्नों की ध्वनि से बन की  
फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸ <Br/>
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नीरवता सकल भगा दी॥55॥
खरधार–दुधारी चूम–चूम।।66।। <Br/><Br/>
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"एकत्र करो इस धन से  
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तुम सेना वेतन–भोगी।  
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तुम एक बार फिर जूझो  
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अब विजय तुम्हारी होगी॥56॥
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कारागृह में बन्दी माँ
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नित करती याद तुम्हें है।  
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तुम मुक्त करो जननी को  
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यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।"॥57॥
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वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी  
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लग गया हाँफने कहकर।  
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गिर पड़ी लार अवनी पर¸  
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हा उसके मुख से बहकर॥58॥
 +
 
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वह कह न सका कुछ आगे¸  
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सब भूल गया आने पर।  
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कटि–जानु थामकर बैठा  
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वह भू पर थक जाने पर॥59॥
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राणा ने गले लगाया  
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कायरता धो लेने पर।  
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फिर बिदा किया भामा को  
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घुल–घुल कर रो लेने पर॥60॥
 +
 
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खुल गये कमल–कोषों के  
 +
कारागृह के दरवाजे।  
 +
उससे बन्दी अलि निकले  
 +
सेंगर के बाजे–बाजे॥61॥
 +
 
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उषा ने राणा के सिर  
 +
सोने का ताज सजाया।  
 +
उठकर मेवाड़–विजय का  
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खग–कुल ने गाना गाया॥62॥
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 +
कोमल–कोमल पत्तों में  
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फूलों को हँसते देखा।  
 +
खिंच गई वीर के उर में  
 +
आशा की पतली रेखा॥63॥
 +
 
 +
उसको बल मिला हिमालय का¸  
 +
जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली।  
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वर मिला उसे प्रलयंकर का¸  
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उसको चण्डी की शक्ति मिली॥64॥
 +
 
 +
सूरज का उसको तेज मिला¸  
 +
नाहर समान वह गरज उठा।  
 +
पर्वत पर झण्डा फइराकर  
 +
सावन–घन सा वह गरज उठा॥65॥
 +
 
 +
तलवार निकाली¸ चमकाई¸  
 +
अम्बर में फेरी घूम–घूम।  
 +
फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸  
 +
खरधार–दुधारी चूम–चूम॥66॥
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04:08, 13 अगस्त 2016 के समय का अवतरण

षोडश सर्ग: सगथी

आधी रात अँधेरी
तम की घनता थी छाई।
कमलों की आँखों से भी
कुछ देता था न दिखाई॥1॥

पर्वत पर¸ घोर विजन में
नीरवता का शासन था।
गिरि अरावली सोया था
सोया तमसावृत वन था॥2॥

धीरे से तरू के पल्लव
गिरते थे भू पर आकर।
नीड़ों में खग सोये थे
सन्ध्या को गान सुनाकर॥3॥

नाहर अपनी माँदों में
मृग वन–लतिका झुरमुट में।
दृग मूंद सुमन सोये थे
पंखुरियों के सम्पुट में॥4॥

गाकर मधु–गीत मनोहर
मधुमाखी मधुछातों पर।
सोई थीं बाल तितलियां
मुकुलित नव जलजातों पर॥5॥

तिमिरालिंगन से छाया
थी एकाकार निशा भर।
सोई थी नियति अचल पर
ओढ़े घन–तम की चादर॥6॥

आँखों के अन्दर पुतली
पुतली में तिल की रेखा।
उसने भी उस रजनी में
केवल तारों को देखा॥7॥

वे नभ पर काँप रहे थे¸
था शीत–कोप कंगलों में।
सूरज–मयंक सोये थे
अपने–अपने बंगलों में॥8॥

निशि–अंधियाली में निद्रित
मारूत रूक–रूक चलता था।
अम्बर था तुहिन बरसता
पर्वत हिम–सा गलता था॥9॥

हेमन्त–शिशिर का शासन¸
लम्बी थी रात विरह–सी।
संयोग–सदृश लघु वासर¸
दिनकर की छवि हिमकर–सी॥10॥

निर्धन के फटे पुराने
पट के छिद्रों से आकर¸
शर–सदृश हवा लगती थी
पाषाण–हृदय दहला कर॥11॥

लगती चन्दन–सी शीतल
पावक की जलती ज्वाला।
बाड़व भी काँप रहा था
पहने तुषार की माला॥12॥

जग अधर विकल हिलते थे
चलदल के दल से थर–थर।
ओसों के मिस नभ–दृग से
बहते थे आँसू झर–झर॥13॥

यव की कोमल बालों पर¸
मटरों की मृदु फलियों पर¸
नभ के आँसू बिखरे थे
तीसी की नव कलियों पर॥14॥

घन–हरित चने के पौधे¸
जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸
भिंग गये ओस के जल से
सरसों के पीत मुरेठे॥15॥

वह शीत काल की रजनी
कितनी भयदायक होगी।
पर उसमें भी करता था
तप एक वियोगी योगी॥16॥

वह नीरव निशीथिनी में¸
जिसमें दुनिया थी सोई।
निझर्र की करूण–कहानी
बैठा सुनता था कोई॥17॥

उस निझर्र के तट पर ही
राणा की दीन–कुटी थी।
वह कोने में बैठा था¸
कुछ वंकिम सी भृकुटी थी॥18॥

वह कभी कथा झरने की
सुनता था कान लगाकर।
वह कभी सिहर उठता था¸
मारूत के झोंके खाकर॥19॥

नीहार–भार–नत मन्थर
निझर्र से सीकर लेकर¸
जब कभी हवा चलती थी
पर्वत को पीड़ा देकर॥20॥

तब वह कथरी के भीतर
आहें भरता था सोकर।
वह कभी याद जननी की
करता था पागल होकर॥21॥

वह कहता था वैरी ने
मेरे गढ़ पर गढ़ जीते।
वह कहता रोकर¸ माँ की
अब सेवा के दिन बीते॥22॥

यद्यपि जनता के उर में
मेरा ही अनुशासन है¸
पर इंच–इंच भर भू पर
अरि का चलता शासन है॥23॥

दो चार दिवस पर रोटी
खाने को आगे आई।
केवल सूरत भर देखी
फिर भगकर जान बचाई।24॥

अब वन–वन फिरने के दिन
मेरी रजनी जगने की।
क्षण आँखों के लगते ही
आई नौबत भगने की॥25॥

मैं बूझा रहा हूँ शिशु को
कह–कहकर समर–कहानी।
बुद–बुद कुछ पका रही है
हा¸ सिसक–सिसककर रानी॥26॥

आँसू–जल पोंछ रही है
चिर क्रीत पुराने पट से।
पानी पनिहारिन–पलकें
भरतीं अन्तर–पनघट से॥27॥

तब तक चमकी वैरी–असि
मैं भगकर छिपा अनारी।
काँटों के पथ से भागी
हा¸ वह मेरी सुकुमारी॥28॥

तृण घास–पात का भोजन
रह गया वहीं पकता ही।
मैं झुरमुट के छिद्रों से
रह गया उसे तकता ही॥29॥

चलते–चलते थकने पर
बैठा तरू की छाया में।
क्षण भर ठहरा सुख आकर
मेरी जर्जर–काया में॥30॥

जल–हीन रो पड़ी रानी¸
बच्चों को तृषित रूलाकर।
कुश–कण्टक की शय्या पर
वह सोई उन्हें सुलाकर॥31॥

तब तक अरि के आने की
आहट कानों में आई।
बच्चों ने आँखें खोलीं
कह–कहकर माई–माई॥32॥

रव के भय से शिशु–मुख को
वल्कल से बाँध भगे हम।
गह्वर में छिपकर रोने
रानी के साथ लगे हम॥33॥

वह दिन न अभी भूला है¸
भूला न अभी गह्नर है।
सम्मुख दिखलाई देता
वह आँखों का झर–झर है॥34॥

जब सहन न होता¸ उठता
लेकर तलवार अकेला।
रानी कहती– न अभी है
संगर करने की बेला॥35॥

तब भी न तनिक रूकता तो
बच्चे रोने लगते हैं।
खाने को दो कह–कहकर
व्याकुल होने लगते हैं॥36॥

मेरे निबर्ल हाथों से
तलवार तुरत गिरती है।
इन आँखों की सरिता में
पुतली–मछली तिरती है॥37॥

हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल
मेरा यह दुबर्ल तन है।
इसको कहते जीवन क्या¸
यह ही जीवन जीवन है॥38॥

अब जननी के हित मुझको
मेवाड़ छोड़ना होगा।
कुछ दिन तक माँ से नाता
हा¸ विवश तोड़ना होगा॥39॥

अब दूर विजन में रहकर
राणा कुछ कर सकता है।
जिसकी गोदी में खेला¸
उसका ऋण भर सकता है॥40॥

यह कहकर उसने निशि में
अपना परिवार जगाया।
आँखों में आँसू भरकर
क्षण उनको गले लगाया॥41॥

बोला –"तुम लोग यहीं से
माँ का अभिवादन कर लो।
अपने–अपने अन्तर में
जननी की सेवा भर लो॥42॥

चल दो¸ क्षण देर करो मत¸
अब समय न है रोने को।
मेवाड़ न दे सकता है
तिल भर भी भू सोने को॥43॥

चल किसी विजन कोने में
अब शेष बिता दो जीवन।
इस दुखद भयावह ज्वर की
यह ही है दवा सजीवन।"॥44॥

सुन व्यथा–कथा रानी ने
आँचल का कोना धरकर¸
कर लिया मूक अभिवादन
आँखों में पानी भरकर॥45॥

हाँ¸ काँप उठा रानी के
तन–पट का धागा–धागा।
कुछ मौन–मौन जब माँ से
अंचल पसार कर माँगा॥46॥

बच्चों ने भी रो–रोकर
की विनय वन्दना माँ की।
पत्थर भी पिघल रहा था
वह देख–देखकर झाँकी॥47॥

राणा ने मुकुट नवाया
चलने की हुई तैयारी।
पत्नी शिशु लेकर आगे
पीछे पति वल्कल–धारी॥48॥

तत्काल किसी के पद का
खुर–खुर रव दिया सुनाई।
कुछ मिली मनुज की आहट¸
फिर जय–जय की ध्वनि आई॥49।
राणा की जय राणा की
जय–जय राणा की जय हो।
जय हो प्रताप की जय हो¸
राणा की सदा विजय हो॥50॥

वह ठहर गया रानी से
बोला – "मैं क्या हूँ सोता?
मैं स्वप्न देखता हूँ या
भ्रम से ही व्याकुल होता॥51॥

तुम भी सुनती या मैं ही
श्रुति–मधुर नाद सुनता हूँ।
जय–जय की मन्थर ध्वनि में
मैं मुक्तिवाद सुनता हूँ।"॥52॥

तब तक भामा ने फेंकी
अपने हाथों की लकुटी।
'मेरे शिशु्' कह राणा के
पैरों पर रख दी त्रिकुटी॥53॥

आँसू से पद को धोकर
धीमे–धीमे वह बोला –
"यह मेरी सेवा्" कहकर
थैलों के मुँह को खोला॥54॥

खन–खन–खन मणिमुद्रा की
मुक्ता की राशि लगा दी।
रत्नों की ध्वनि से बन की
नीरवता सकल भगा दी॥55॥

"एकत्र करो इस धन से
तुम सेना वेतन–भोगी।
तुम एक बार फिर जूझो
अब विजय तुम्हारी होगी॥56॥

कारागृह में बन्दी माँ
नित करती याद तुम्हें है।
तुम मुक्त करो जननी को
यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।"॥57॥

वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी
लग गया हाँफने कहकर।
गिर पड़ी लार अवनी पर¸
हा उसके मुख से बहकर॥58॥

वह कह न सका कुछ आगे¸
सब भूल गया आने पर।
कटि–जानु थामकर बैठा
वह भू पर थक जाने पर॥59॥

राणा ने गले लगाया
कायरता धो लेने पर।
फिर बिदा किया भामा को
घुल–घुल कर रो लेने पर॥60॥

खुल गये कमल–कोषों के
कारागृह के दरवाजे।
उससे बन्दी अलि निकले
सेंगर के बाजे–बाजे॥61॥

उषा ने राणा के सिर
सोने का ताज सजाया।
उठकर मेवाड़–विजय का
खग–कुल ने गाना गाया॥62॥

कोमल–कोमल पत्तों में
फूलों को हँसते देखा।
खिंच गई वीर के उर में
आशा की पतली रेखा॥63॥

उसको बल मिला हिमालय का¸
जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली।
वर मिला उसे प्रलयंकर का¸
उसको चण्डी की शक्ति मिली॥64॥

सूरज का उसको तेज मिला¸
नाहर समान वह गरज उठा।
पर्वत पर झण्डा फइराकर
सावन–घन सा वह गरज उठा॥65॥

तलवार निकाली¸ चमकाई¸
अम्बर में फेरी घूम–घूम।
फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸
खरधार–दुधारी चूम–चूम॥66॥