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कंठ रुमाल घुटन्ना / बृजनारायण शर्मा

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कंठ रुमाल घुटन्ना लुंगी कमर बंध गोफन

का कस कर, मीलों दूर छोड़ घर अपना

इस अनजान शहर में आया लेकर सपना

उदर-पूर्ति का, नए वस्त्र पहनेगा, मोदन

मन का होगा, ग़ज़ब हो गया इस बस्ती में

लम्बी-लम्बी लगी कतारें कैरोसिन की

दुकानों पर, मारी जाती आधे दिन की

मज़दूरी, मतलब नहीं किसी से, मस्ती में

अपनी ही रहते लोग यहाँ के, नाम नहीं

कोई भी लेता, हम से सब मामा जान

करते हैं व्यवहार ढोर-सा, हम अज्ञान

भाव में जीते, चालाकी से काम नहीं

ले पाते बिल्कुल, इस से अच्छा अपना घर

था, सपने मिले ख़ाक में सब इधर आकर !