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कहाँ हो मुक्तिदाता / असंग घोष

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नाचता रहा दिन-ब-दिन
अपनों की ही उँगलियों पर
उनके इशारों के अनुरूप / तृप्त करता रहा
उनकी लालसाएँ
हरदम मारकर अपनी इच्छाएँ
जन्म से ही मज़बूत अदृश्य धागों में बँधा
मैं आज तक बँधुआ हूँ,
और तुम!
कहाँ चले गये हो
मुक्तिदाता?