वसन्त को छुआ / महेश सन्तोषी
समय की स्याहियों के सूखने का वक्त है ये,
यह हमारा आखिरी ख़त, आखिरी दस्तख़त।
अकेला तुम्हारा ही नाम था, इस खत्म होते सफरनामें में,
बड़े बदनाम थे हम, तुम्हारे नाम से, हाल में गुज़रे जमाने में
जरूरी तो नहीं है, हम लिखें, इन आँसुओं की उम्र कितनी है,
सुबह सी ताज़गी है भीगने में, शाम तक, लिखने-लिखाने में।
बता तो दें वृथा की वसीयतों की नींव में क्या है,
सनद रह जाएँगे, गीले खतों पर भीगते अक्षर।
समय की स्याहियों के सूखने का वक्त है ये,
यह हमारा आखिरी ख़त, आखिरी दस्तख़त।
हदें इस उम्र की भी थीं, व्यथाएँ वहाँ से आगे नहीं जातीं,
अगर तुम देख पाते, सरहदें दर्द की भी थीं, हमें तो दिख नहीं पातीं।
अकेला नहीं था कोई धुआँ, वह धुओं के काफिलों का सिलसिला-सा था
बहुत कुछ और भी था तुम्हें लिखने को, अधूरी रह गई यह आख़िरी पाती।
बुलाये तो नहीं थे, खुद-ब-खुद आये हैं हरकारे
हमारे द्वार पर पढ़ने लगी है-एक आखिरी दस्तक
समय की स्याहियों के सूखने का वक्त है ये,
यह हमारा आखिरी ख़त, आखिरी दस्तख़त।