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पंछी बोला / रामावतार यादव 'शक्र'

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संध्या की उदास बेला, सूखे तरुपर पंछी बोला!

आँखें खोलीं आज प्रथम, जग का वैभव लख भूला मन!
सोचा उसने-”भर दूँ अपने मादक स्वर से निखिल गगन!“
दिन भर भटक-भटक कर नभ में मिली उसे जब शान्ति नहीं,
बैठ गया तरु पर सुस्ताने, बैठ गया होकर उन्मन!

देखा अपनी ही ज्वाला में
झुलस गई तरु की काया;
मिला न उसे स्नेह जीवन में,
मिली न कहीं तनिक छाया।

सोच रहा-”सुख जब न विश्व में, व्यर्थ मिला ऐसा चोला।“
संध्या की उदास बेला, सूखे तरु पर पंछी बोला।