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पंछी बोला / रामावतार यादव 'शक्र'

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-1-
संध्या की उदास बेला, सूखे तरुपर पंछी बोला!

आँखें खोलीं आज प्रथम, जग का वैभव लख भूला मन!
सोचा उसने-”भर दूँ अपने मादक स्वर से निखिल गगन!“
दिन भर भटक-भटक कर नभ में मिली उसे जब शान्ति नहीं,
बैठ गया तरु पर सुस्ताने, बैठ गया होकर उन्मन!

देखा अपनी ही ज्वाला में
झुलस गई तरु की काया;
मिला न उसे स्नेह जीवन में,
मिली न कहीं तनिक छाया।

सोच रहा-”सुख जब न विश्व में, व्यर्थ मिला ऐसा चोला।“
संध्या की उदास बेला, सूखे तरु पर पंछी बोला।

-2-

देखा था कलियों को प्रातः हँसते ही उपवन में आज;
कैसा मादक स्वर भरता था मधुपों का तब जुड़ा समाज।
देखा मलय पवन को भरते प्रतिपल सौरभ से झोली,
अवनि हरित थी, गगनांगन में धमित मोद था रहा विराज।

प्रथम-प्रथम देखा था जैसा,
भूला था जिसको लख कर;
रहा न वही रूप जगती का,
देखा दिनभर अनुभव कर।

सोच रहा वह-”हँसी-खुशी में किसने विष लाकर घोला!“
संध्या की उदास बेला, सूखे तरु पर पंछी बोला!

-3-

नभ में एक तारिका जलती, धूल-धूसरित गगन महान!
विहग-यूथ नीड़ों को जाते लेकर कोई व्यथा अजान!
जीवन की ज्वाला की यादें रह-रह विकल बनाती हैं,
मानस में हलचल फैली है, उठता है भीषण तूफान।

कहता है समीर कुछ जग से,
कहता कुछ नभ सीमा-हीन!
संध्या की उदास छाया में
भटक रहा कोई पथ-हीन।

सोच रहा डाली पर पंछी, एक शुष्क पत्ता डोला।
संध्या की उदास बेला, सूखे तरु पर पंछी बोला।
-नवम्बर, 1941 ई.