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एक डाल थी / जगदीश गुप्त

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एक डाली थी —
जिसमें कोई पात नहीं था
फूल नहीं था;
लम्बी-सी बेडौल टहनियाँ
टेढ़ी-मेढ़ी —
उनमें भी बेहद रूखापन
और हृदय के पार बेधने वाला कोई शूल नहीं था ।

सूनापन बन कर मन के प्रतिकूल चुभ गया,
तो भी मुझ से डाल न छूटी ।

कुछ दिन बीते
वही डाल थी—
निरे फूल थे
निरे शूल थे
हर टहनी में नई चमक थी —
नई-नई कलियाँ
हरियाली बिखराते अनगिनत पात थे ।
जाने क्यों मुझसे छुप-छुपकर
आपस में कर रहे बात थे ।
मैंनै चाहा सब अनचाहे शूल तोड़ दूँ
पर हाथों में टहनी का हर शूल चुभ गया
तो भी मुझसे डाल न छूटी ।

कुछ दिन बीते और
डाल भी वही बनी थी —
लेकिन कोई शूल नहीं था
पात नहीं था
टहनी-टहनी पर अनगिन फूल ही फूल थे
खिले-अधखिले कोमल-कोमल
मैंने चाहा सब मनचाहे फूल तोड़ लूँ

पर जाने क्यों —
काँटों से भी तीखा बनकर डाली का हर फूल चुभ गया
और एक ही क्षण में मुझसे डाल छूट गई ।