भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक डाल थी / जगदीश गुप्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक डाली थी —
जिसमें कोई पात नहीं था
फूल नहीं था;
लम्बी-सी बेडौल टहनियाँ
टेढ़ी-मेढ़ी —
उनमें भी बेहद रूखापन
और हृदय के पार बेधने वाला कोई शूल नहीं था ।

सूनापन बन कर मन के प्रतिकूल चुभ गया,
तो भी मुझ से डाल न छूटी ।

कुछ दिन बीते
वही डाल थी —
निरे फूल थे
निरे शूल थे
हर टहनी में नई चमक थी —
नई-नई कलियाँ
हरियाली बिखराते अनगिनत पात थे ।
जाने क्यों मुझसे छुप-छुपकर
आपस में कर रहे बात थे ।
मैंनै चाहा सब अनचाहे शूल तोड़ दूँ
पर हाथों में टहनी का हर शूल चुभ गया
तो भी मुझसे डाल न छूटी ।

कुछ दिन बीते और
डाल भी वही बनी थी —
लेकिन कोई शूल नहीं था
पात नहीं था
टहनी-टहनी पर अनगिन फूल ही फूल थे
खिले-अधखिले कोमल-कोमल
मैंने चाहा सब मनचाहे फूल तोड़ लूँ

पर जाने क्यों —
काँटों से भी तीखा बनकर डाली का हर फूल चुभ गया
और एक ही क्षण में मुझसे डाल छूट गई ।