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जंगल / प्रताप सहगल

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जंगल
जिसके पास कोई इतिहास नहीं होता
होता भी हो इतिहास
पर कहीं भी इतिहास में दर्ज नहीं होता
जंगल का दर्द।

जंगल
सुनता है खामोश/हवाओं का दर्द
हवाओं के दर्द को देता है आवाज़
सांय-सांय...सूं ऽ ऽ ऽ सूं ऽ ऽ ऽ
पी लेता है हवाओं में तैरता
आदमी का ज़हर
जंगल।

जंगल
फैलने लगता है अपनी सीमाओं से बाहर।
निचाट जंगल।
जंगल की शिराओं से झरने लगता है
सूनापन
कभी बेचैन खामोशी
और कभी जंगलकद दहशत।

वक्त के चाबुक की मार सहता
जंगल खड़ा है खामोश
सदियों से खामोश।
जब कभी भी जंगल
नहीं सह पाता आदमी का बलात्कार
चीखता है जंगल-
और जब कभी भी चीखता है जंगल
हवाओं में पड़ जाती हैं दरारें
दरकने लगता है आसमान
छीजने लगती है ज़मीन

अव्यवस्था में जीता जंगल
कोई शब्द नहीं
एक सत्ता है
वक्त और शब्द की हदों को लांघती
एक सत्ता है जंगल
अपनी व्याख्या का इन्तज़ार करती
एक सत्ता।