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कथन / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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आसान तो बिल्कुल नहीं
पार हो जाना खिड़कियों से
टहलता चांद अब दुबका था
काले बादलों के मेले में खोया
ट्रापिफकों का शोर
खुरच देता मौसम का गुनगुना स्वभाव
बसों में हिचकोले खाती
टूट चुकी होती सुबह की भूखी नींद।
घर गांव से दूर भी हो सकता था
जैसे दीखता है अकेले पटिये पर
पसरा बांस का किला
पहाड़ तोड़ते बारूद की चमक से
बचाया जा सकता था आंख-कान
सुना जा सकता था
बीहड़ घाटियों में मचा चिड़ियों का शोर
ठेकेदार के कुत्तों से
छिपायी जा सकती थी दो जून की रोटियां
खेला जा सकता था
धूल-कीचड़ में सने बचपन में खेल
घिसते-पिटते पत्थरों की दुनिया से
लौटा जा सकता था किसी भी रात।