जैसे पौधे झुकते हैं
हदस के मारे
चाहे लाख दो
खाद-पानी
कभी-कभी साहस की कमी से भी
कुनमुना नहीं पाते हैं पौधे
दिन-ब-दिन
गहराती जाती सांझ की स्याही के
भीतर तक पसारते हैं अपनी जड़े
वे उगते हैं
पत्थरों पर हरी दुबिया की तरह
हमारे अनिश्चितता के
पसरे कुहरे के बीच में
लालसा की तरह उगते हैं पौधे।