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कोचानो नदी / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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1

फटने लगतीं सरेहों की छातियां
डंकरने लगतीं
बधर में चरती हुई प्यासी गायें
कोचानो के घाव तब टीसने लगते
जेठ की तपती दुपहरी में
जब होहकारने लगती लू
चू-पसर आती आंसू की पतली धर
कीच-काच से सूखे घाट भर जाते
हमें अचरज होता
तट के वृक्ष भी विद्रोही भाव में खड़े दीखते
रिसते हुए पानी पी
कैसे जीयेंगी मछलियां
लोग कैसे तैर पायेंगे?
ये सवाल
रूधें गले में फंसे जाते
होने लगती थी जब कभी अंबाझोर बारिश
बाढ़ में सोपह हो जाती थीं पफसलें
उखड़ जाते थे
जामुन और गूलर के पेड़
गायब हो जाती थी दिन-दुपहरिया
तटों पर उगी
कंटीले बबूल की झलांस
दहा जाते थे शैवाल और जलकुंभी के रेले
तो भी उग आता था जीवन
यंत्राणाओं से भरे उस युग में भी
मिल ही जाती थी
सांस भर लेने की कोई सुराख
बहने लगती थी नदी
दूर जाते ही गांव से
तीखी धर वन हमारी ध्मनियों में।

2

पड़ाव से उतरते ही
जाने लगता किसी अनचिन्ही बस्ती में
घने बगीचे की टेढ़ी-मेढ़ी
राहों की दिशा में पांव पड़ते ही
बोल पड़ते लोग
‘कहां है भाई साहब का मकान?’
और पोंछने लगते
यात्रा भर की थकान अपनी मुस्कानों से
आगे बढ़ते ही मिल जाता
लाल चोंच वाले पंछी 43
हंसता हुआ कोचानो का कगार
झुरमुटों में टंगे दीखते बया के घोसले
चिड़ियों के झुंड पंख पसारे
चले जाते अमृत पफलों के बाग में
जहां बाजार के कोलाहल की
गंध् तक नहीं जा पाती।

3

झींगा मछली की पीठ पर
तैरती नदी में
नहा रहे थे कुछ लोग
कुछ लोग जा रहे थे
काटने गेहूं की बालियां
पेड़ों की ओट में
अपना सिर खुजलाते
देख रहे थे तमाशा
कुछ लोग
सूरज के उगने
दिन चढ़ने
और झुरमुटों में दुबकने की घड़ी
कंघों पर लादे उम्मीदों का आसमान
पूरा गांव ही तन आया था
उनके भीतर
जो खोज रहे होते थे
कोचानो का रोज बदलता हेलान
क्षितिज की तरफ वह
आवाज भर रहा है अंध
आंखों से दीख नहीं रहा उसे कुछ भीद्ध
कुछ लोग चले जा रहे थे तेज कदम
जिध्र लिपटते धुंध् से
उबिया रहा था उसके
नदी पार का गांव।

4

खिड़की से तैरती
आ रही है बधवे की आवाज
ये मंगलकामनाएं नहीं हैं मात्रा
शायद रची जा रही हों
विकल्प काल की अग्नि)चाएं
पत्तों में दुबके हैं चूजे
अनंत आकाश
छिना जा रहा है परिन्दों के पंखों से
ठचके बस यात्रियों से
छिना जा रहा है सरो-सामान
लोगों से घर-बार छिना जा रहा है
चला आ रहा है
आडियो-विडियो गेम का कर्णभेदी संगीत
सिमटती जा रही है बच्चों की
कॉमिक्स-बुक्स और जंगली होते स्कूल में पूरी दुनिया
लाल चोंच वाले पंछी 45
देखो-दूर उध्र हवा में लटका
झूल रहा है रावण का अध्जला पुतला
कहीं दुहराई न जाए पिफर से
लंका कांड की पुरानी पड़ चुकी रीलें
धुप्प अंध्यिारे में भी
चले जा रहे हैं वे लोग
डूबकियां लगाने कोचानो का गांव
हम भी चलें बंधु...
अब चिड़िया चहचहाने लगी है
हमारी प्रतीक्षा में।

5

डर जाता हूं चौंककर गहरी नींद मंे
कि कहीं रातोंरात पाट न दे कोई
मेरे बीच गांव में बहती हुई नदी को
लंबे चौड़े नालों में बंद करके
बिखेर दे उफपरी सतह पर
भुरभुरी मिट्टी की परतें
जिस पर उग आये
बबूल की घनी झाड़ियां
नरकटों की सघन गांछे...
सुबह पिफराकित करने वाले लोग
खोजते रह जायेंगे नदी के कछार
चकरायेंगे देखकर वहां काक भगौआ
और जंगल में स्यारों की असंख्य मांदें
46 लाल चोंच वाले पंछी
हकसे-प्यासे पंडुक-समूह
पहाड़ों से उतरेंगे दिन तपते ही
सोते की तलाश में खुरेचेंगे जमीन
अथाह तप्त जल राशि में पकती
मछलियों की भींनी गंध्
और कंटीले पेड़ों से जूझते हुए
बहा देंगे अपने रक्त की वैतरणी
कीचड़ में लोटने आयेंगी भैंसें
जब जल रहा होगा सूरज
ठीक हमारे सिर के उफपर
और नीलगायों के झुंड में
बिला जायेंगी वे अनायास ही
जायेंगे हम कभी उस दुर्गम वन में
अपनी लग्गी से तोड़ लायेंगे दातून
जिस पेड़ में नदी का पानी
पग धेते बहता हुआ
चढ़ आया होगा उसकी फूल-पत्तियों तक
तब कोचानो हमारे दांतों के बीच नाचेगी
और हमारी शिराओं में भी
भागने लगेगी अपनी पूरी विराटता के साथ
घुमाव लेती हुई नीम अंधेरे में।