Last modified on 10 नवम्बर 2014, at 23:20

आज़ादी / गुलाम अहमद ‘महजूर’

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:20, 10 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाम अहमद ‘महजूर’ |अनुवादक=रतन ल...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

<ref>देश विभाजन के बाद</ref>


गुण गाओ, हमारे घर घर के अंदर घुस आई आज़ादी,
चिरकाल बाद हमको अब झलक दिखाने आई आज़ादी।

जब आज़ादी पहले हिंदुस्ताँ में प्रकट हुई,
भीड़ में बस लाखों लोगों को झोंकती आई आज़ादी।

पश्चिम के देशों पर रहमत की बरखा बरसाती है
ज़मीं हमारी पर बस गर्जन करती आई आज़ादी।

जुल्म, दलिद्दर, अनाचार और घरां में वीरानी,
हम पर ऐसी शोभन छाया, करती आई आज़ादी।

हम दासों से मोल लिवाते जालिम ज़ोर ज़बर्दस्ती,
चीजें, वही मुलम्मा करके, बेचने आई आज़ादी।

तुम क्या समझे आज़ादी ज्यों बाज़ारों में चना बिके ?
चाय विदेशी, होटल में चुस्कियाँ उड़ाती आज़ादी।
आज़ादी सुंदर मुर्गी है, सोने के अंडे देती,
उन अंड़ों को सेने हब तो उन पर बैठी आज़ादी।

यह आज़ादी हूर स्वर्ग की है, क्या घर घर जाएगी ?
बस केवल कुछ चुने घरों में घूम झूमती आज़़ादी।

आज़ादी कहती है पूँजीवाद नहीं रहने देगी,
अब बटोरने लगी है पूँजी अपनों से ही आज़ादी।
आज़ादी लोगों पर ‘हारी पर्बत’ <ref>श्रीनगर में एक पहाड़ी हारीढसारिका</ref> सी भारी पड़ती
किस्मत वालों को फूलों सी कोमल, हल्की आज़ादी।

देकर लगाने लौटे, बतियाते खलिहानों में यों-
हमरा दाना दाना सब कुद छीन ले गई आज़ादी।

पहले के ज़ालिम शासक, आठ लेते थे प्रति खिरवार <ref>धान चावल तोलने का एक पुराना मान जो 80 कि.ग्रा. के क़रीब होता था</ref>
चौदह देकर अब छूट सके, जब से घर आई आज़ादी।

मुट्ठी भर चावल को उसकी काँख तलाशी जगह जगह
अब छिपा टोकरी पल्लू में, कुंजड़न ले आई आज़ादी।

नबी शेख <ref>नाम के अंत में ‘शेख’जाति-नाम जोड़ने से स्पष्ट है कि यह किसी सफ़ाई कर्मचारी के बारे में कहा गया है।</ref> समझे मतलब, उसकी बीवी ले उठा गए
वह फर्यादी हुआ, पर उधर बच्चा ब्याई, आज़ादी।

मुर्ग कबूतर <ref>कश्मीर में घर में मुर्गी पालने की क्षमता समर्थ लोगों की मानी जाती थी।</ref>
मुर्ग व्यवस्था देश में ऐसी, लेकर आई आज़ादी।

शब्दार्थ
<references/>