Last modified on 30 जून 2016, at 23:40

ग़नीमत है / शरद कोकास

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 30 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |अनुवादक= |संग्रह=हमसे त...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

व्यवस्था की सड़ान्ध में मंडराती है
प्रलोभन की खुशबू
सूंघते हुए जिसे शंका उपजती है
सूंघने की ताकत पर

ज़बान के उलटफेर से
विरोध की जगह निकलती है
चापलूसी की भाषा
मुझे सन्देह होता है
मेरे मुँह में कहीं
दूसरों की ज़बान तो नहीं

हाथों की उंगलियाँ
मुट्ठियों की शक्ल अख़्तियार करने की बजाय
जुड़ जाती हैं आपस में
मुझे शक होता है
ये हाथ मेरे नहीं

आँखों से देखता हूँ दूसरों का दिखाया
फेर लेता हूँ आँखें अनचाहे दृश्यों से
साहस नहीं जुटा पाता
आईने के सामने

सुनता हूँ घंटियाँ
अज़ान और प्रार्थनाएं
आस्था के कुएँ में गूंजती हुई
जो रोक देती है चीखों की आवाज़
ग़नीमत है कि जिस्म के भीतर
मेरा दिमाग़ अभी तक मेरा है।