मशीन के पुर्जे सी ज़िन्दगी में
तेल की बूँद बनकर आती हैं छुट्टियाँ
गाँव में बीमार माँ की आँखों में
जीने की अंतिम आस बनकर
उतर आती है छुट्टियाँ
बहन की सूनी कलाईयों में चूड़ियाँ
पिता के नंगे ज़िस्म में कुर्ता
भाई की आँखों में आगे पढ़ने की ललक
होती जाती छुट्टियाँ
पत्नी के देह पर अटके चीथड़ों में
परिवर्तन की आस बन जाती हैं छुट्टियाँ
तुलसी के बिरवे के लिए जलधारा
लक्ष्मी गाय, मोती कुत्ते के लिए
स्पर्श की चाह बन जाती हैं छुट्टियाँ
बाग-बगीचों खेत-खलिहान
नदी पहाड़ अमराईयों के लिए
गुज़रेकल की याद बन जाती हैं छुट्टियाँ
कब होती हैं शुरू
कब ख़त्म हो जाती हैं
मुँह ढाँककर सो जाने के लिये
नहीं आती हैं छुट्टियाँ
-1996