Last modified on 1 जुलाई 2016, at 00:28

शिकारी / शरद कोकास

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:28, 1 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |अनुवादक= |संग्रह=हमसे त...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जंगल ही जंगल था वहाँ और पेड़ों की तरह उगे थे आदमी
न जानवरों को अपनी नस्ल का गुमान था न मनुष्यों को
जाने कैसी-कैसी शक्लों में मंडराती थी मौत
मनुष्य, जानवर, पेड़ सब पर एक सा कहर ढाती हुई

यह कमज़ोर पर ताक़तवर की विजय का तंत्र था
जहाँ पैने नाखून और तेज़ दाँत लिए घूमते थे जानवर
अपने दिमाग़ के अलावा महज एक टहनी थी इंसान के पास
जिसकी उछाल में आत्मरक्षा के अलावा
हिंसा का प्रतिकार था
हथियारों की दुनिया में यह भाले का आविष्कार था

अपनी जीत पर इठलाते मनुष्य से कहा भूख ने
कि उसके विस्तार में ही है पृथ्वी पर जीवन
सो उठो और जीवित रहने की हिकमत पैदा करो
भूख के प्रस्ताव पर आदमी ने किए अनगिनत प्रयोग
खाद्य-अखाद्य वनस्पतियों और जीवों पर
जिनके निष्कर्ष में वह शिकारी बना

टहनी की नोक पर उसने बांधे पत्थर
फिर किसी अन्य टहनी के साथ खेलते हुए
उसे अपनी ओर मोड़ा और छोड़ दिया
मुड़कर सीधे होने की ताकत से उसकी यह पहचान थी
तीर की संगिनी अब कमान थी

मनुष्य की आदिम स्थापनाओं में
भूख, हिंसा और आविष्कार का यह एक ऐसा प्रमेय था
जो अपनी उत्पत्ति से ही स्वयंसिद्ध था

उसकी कमान से निकला तीर
कब भूख के चंगुल से मुक्त हुआ उसे नहीं पता
सभ्यता के पुरोगामी विकासक्रम में
वह युगों की यात्रा करता रहा
अफ्रीका से एशिया, योरोप, मिस्र, सुमेरिया
एथेंस से रोम अवध से लंका जीत का डंका बजता रहा
बढ़ता रहा वह ज़हर बुझे शीर्ष पर संस्कृति धारण किए हुए
अपनी देह में तथाकथित देवताओं की शक्ति लिए हुए

काल की तरह रूप बदलता रहा वह
ढलता रहा विनाशकारी अस्त्रों में
मिसाइलों और प्रक्षेपास्त्रों में
अपने आविष्कारक की सोच से कहीं आगे
अपने आदिम रूप से कहीं अधिक मारक

यह सभ्यताओं के टकराव का दौर था
जहाँ वन्य प्राणियों के शिकार के लिये
हथियारों का प्रयोग वर्ज्य था
निरस्त्रीकरण के नारों के पीछे अघोषित अर्थ था

इस बार शिकारी भी मनुष्य था और शिकार भी।

-2003