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प्रौढ़ा मान / रसलीन

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होरी अवसर में

फागुन के औसर मैं मान है करत कोऊ,
तू है प्यारी पी की, पिय रावरोई मीत है।
जो वे रंग केसर के डारिहैं तो तेरे अंग
अंगन पर ह्वै हैं रंग परम पुनीत है।
और तैं जो पिचकारी केसर की मारिहै तो,
उन पैं चढ़ैगो गोरी थारो रंग पीत है।
या ते चल गोरी होरी खेलैं रसलीन जू सों,
तो कों एक बिधि लाभ, दूजे बिधि जीत है॥33॥

उत्तर

सकल सुवन होइ रदन सुनो बतान,
काम नहीं आवत है बचन बनाइबो।
प्रीत को निबाह एक ओर तें तो होत नांहि,
ज्यों न एक हाथ होत तारी को बजाइबो।
जैसे कि बिटप देत पानिप पुहुप तैसै,
पुहुप करत सोभा बिटप बढ़ाइबो।
टूटे ते परसपर छाज न रहत राज,
आवत है कौन काज वाही को कहाइबो॥34॥