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बंसी बरनन / रसलीन

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बंसी ह्वै छुड़ावत है बंस तैं न रीत कछू,
बंसी सम लेत प्रान मीन को निकारि के।
अधर सुधा में लग उगलत हैं बिख एतो,
अदभुत भयो है यह जगत निहारि के।
मोहै मन देव औ अदेव रसलीन जब,
पसु पंछी थके मानो डारि दई मारि के।
यातें बिधि मेरे जान सेस कों न दीन्हों कान,
सेस तन तान दीन्हों धरती को डरि के॥98॥