Last modified on 11 अक्टूबर 2016, at 21:50

उल्टे सीधे गिरे पड़े हैं पेड़ / सूर्यभानु गुप्त

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:50, 11 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यभानु गुप्त |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उल्टे सीधे गिरे पड़े हैं पेड़
रात तूफ़ान से लड़े हैं पेड़

कौन आया था किस से बात हुई
आँसुओं की तरह झडे हैं पेड़

बाग़बाँ हो गये लकड़हारे
हाल पूछा तो रो पड़े हैं पेड़

क्या ख़बर इंतिज़ार है किस का
सालहासाल से खड़े हैं पेड़

जिस जगह हैं न टस से मस होंगे
कौन सी बात पर अड़े हैं पेड़

कोंपलें फूल पत्तियाँ देखो
कौन कहता है ये कड़े हैं पेड़

जीत कर कौन इस ज़मीं को गया
परचमों की तरह गड़े हैं पेड़

अपनी दुनिया के लोग लगते हैं
कुछ हैं छोटे तो कुछ बड़े हैं पेड़

उम्र भर रासतों पे रहते हैं
शायरी पर सभी पड़े हैं पेड़

मौत तक दोसती निभाते हैं
आदमी से बहुत बड़े हैं पेड़

अपना चेहरा निहार लें ऋतुएँ
आईनों की तरह जड़े हैं पेड़