‘ओजस्वी सौमित्रि करो तुम क्षमा हमारे सारे दोष’।
मदको त्याग, तोड़ मालाको, बोले कपिपति-’छोड़ो रोष॥
रामकृञ्पासे ही पाया मैंने श्री, कीर्ति, राज्य सर्वस्व।
राघवकेञ् उपकार अमितका? या मैं बदला दूँ निस्सव॥
होगा प्रभुकी महिमासे ही रावण-वध, सीता-उद्धार।
मैं नगण्य भी पान्नँञ्गा सेवाका शुचि सौभाग्य अपार’॥
ताराने भी मधुर नम्र वचनोंसे स्थितिका किया बखान।
मृदु-स्वभाव लक्ष्मणने हो संतुष्टस्न् किया तत्क्षण प्रस्थान॥