Last modified on 10 मई 2008, at 19:55

हत्यारे जब मसीहा होते हैं / योगेंद्र कृष्णा

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:55, 10 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा |संग्रह=बीत चुके शहर में / योगेंद्र कृ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हत्यारे जब मसीहा होते हैं

वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते...

बचा लेते हैं ढहने से

खंडहर होते तुम्हारे सपनों

की आखिरी ईंट को

किसी चमत्कार की तरह...

कि तुम इन हत्यारों में ही

देख सको

दैवी चमत्कार की

अलौकिक कोई शक्ति

तुम्हारी जर्जरित सांसों के

तार-तार होने तक

वे करते रहेंगे

और भी कई-कई चमत्कार

कि तुम इन्हें पूज सको

किसी प्राच्य देवता की तरह...

कि तुम्हारी अंतिम सांस के

स्खलित होने के ठीक पहले

उनके बारे में दिया गया

तुम्हारा ही बयान

अंतत: बचा ले सके उन्हें

दरिंदगी के तमाम संगीन आरोपों से...