महानगर की ऊंची इमारतों के बीच
भीड़ में खोया आदमी
चौड़ी चिकनी सड़कों पर
रफ्तार में सिमटते फासले...
दूरभाष और ई-मेल पर
संवेदित संप्रेषित
व्यापार नीतियां
और नई सदी के
प्रेम संलाप...
कमरे की मेज पर
ठिठक गई
पूरी की पूरी एक दुनिया...
विज्ञापनों और बाजार
की लकदक में
रात और दिन के बीच
पटती दूरियां
और
मुखर होठों के
निरंतर सुर्ख होते सारांश
और भी बहुत कुछ के बीच
क्यों तुम्हें
याद आते हैं
अपने गांव के घर
कमरों की दीवारों से
झरती सुरखियां
गलियों की वीरानी
खेतों की मेड़
मां की सफेद साड़ी
दीवारों की फ्रेम में जड़ी
पिता की बेचारगी
दलान में बैठी
मां की प्रतीक्षारत झुर्रियां
बहन की राखी
अद्भुत मंजरों से अटे
इस महानगर में
कई-कई दुनियाओं का रोमांच भी
क्यों तुम्हें
लौटने से नहीं रोक पाता
अंतत:
अपने ही घरों को
आज भी
शब्दों से गढ़ी तमाम भाषाओं
और संचार-तंत्र के
फैलते जालों के बीच
मौन से ही
क्यों संप्रेषित होते हैं
तुम्हारे जीवन के
जरूरी और
नितांत मौलिक संवाद
खुश्बुओं और रंगीनियों में
लगातार फुदकने-चहकने के बाद भी
क्यों अंतत:
इस पृथ्वी पर
बनी रहती है
देह की तुम्हारी आदिम गंध
महानागर आकांक्षाओं
और बाजार के
गोपनीय संघात से लरजती
चकाचौंध दुनिया में भी
क्यों अंतत:
कहीं बचा रहता है
एक अदद साबुत सुरक्षित कोना
आदमी और आदमी के बीच
पूरी एक दुनिया
घटित होने के लिए