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मुड़कर देखना / ब्रजेश कृष्ण

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जिन लोगों की तय थीं मंज़िले
और तय थे जिनके रास्ते
जिनके लिए दूर तक बिछाये जाते थे क़ालीन
उनके लायक वह कभी नहीं था
इसीलिए वे ख़ारिज कर चुके थे उसे
अपनी महफ़िल से कभी का

जो लोग रहते थे हर समय सीढ़ियों की तलाश में
जो पार कर जाना चाहते थे नदी को एक ही छलांग में
या जिन्होंने धकेल दिया था खुद को एक अंधी दौड़ में
उनकी यात्रा का हिस्सा वह हो ही नहीं सकता था
इसलिए वे भी उसे ख़ारिज कर
आगे बढ़ चुके थे कभी के

कठिन और बीहड़ रास्ते पर
दुखते हुए कंधे और घिसते हुए पाँव लिए
वह ठहरता है इक ठाँव पर
और मुड़कर देखता है

क्या पाया और क्या खोया
के बही-खाते की धज्जियाँ उड़ाते हुए
खु़शी है उसे कि बिछे हुए क़ालीन
और अंधी दौड़ के ख़िलाफ़
वह अकेला नहीं है:
वह है
और उसके वे हमसफ़र
जो लहूलुहान तो हैं
मगर ख़ारिज करते हैं उन रास्तों को
जहाँ से होकर जाते हैं महाजन।