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अस्वीकार / तरुण

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अभिमन्यु को तो मैं तब कहता अभिमन्यु-
जब तोड़ सकता होता, भेद सकता होता यदि वह, एक परम भयावह-
जालों, तारों, काँटों का जटिल ग्रन्थिल चक्रव्यूह-
अभियन्ता जिसका-इंटैलिजैंट उच्चकुर्सीधर समूह!

प्रतिष्ठित है सम्भ्रान्त, व्हाइट कॉलर! मुखौटेदार चेहरे, कितने
कुतुब की लाट से कई मंजिले, तने।

गर्दनें! अकड़ से फूली एअरकंडीशनी अफसरशाही,
गुटरगूँ करते कबूतरों की-सी, धूपछाँही।

सैट आँखों में चश्माभेदी दृष्टियाँ,
अण्डाकार खोपड़ियों में करतीं साजिश की सृष्टियाँ!

बगुलों की पाँखों से सफ़ेदपोश, अपनी महिमा में दीन!
अजगरी बैठकें साधे, बहुरूपिये, पेटू, उच्चपदासीन!

हावड़ा के पुल से, पानी में भीगे जूट के-से,.........जाल-
फैले हैं जिनके मस्तिष्कों में विशाल!
मुक्त करे भोले व्यक्ति को, मुक्त करे जो पीड़ित समाज,
तोड़े, भेदे आज के चक्रव्यूह को जाँ-बाज-
मैं तो उसी को कहूँगा ताजा अभिमन्यु आज!