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चौक / प्रेमघन

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जिन बैठकन सहन मैं प्रातःकाल जुरे जन।
रहत प्रनाम सलाम करत हित सावधान मन॥161॥

रजनी संध्या समय जुरत जहँ सभा सुहावनि।
बिविध रीति समयानुसार चित चतुर लुभावनि॥162॥

कथा, बारता, रागरंग, लीला, कौतुक मय।
मन बहलावन काम काज हित सहित सदामय॥163॥

जगमगात जहँ दीपक अवल रहत निसि सुन्दर।
चहल पहल जित मची रहत नित नवल निरन्तर॥164॥

कास तहाँ अरु घास जमी ढूहन पर लखियत।
चरत अजामिल पात इतै सों उत अब घूमत॥165॥