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विजयादशमी / प्रेमघन

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विजया दशमी के दिन की तो अकथ कहानी।
उमड़ि परत जब भीड़ चहूँ दिस सों अररानी॥346॥

युवति वृन्द कजलित नैनन सिन्दूर दिये सिर।
नवल बसन भूषन साजे उत्साह भरी चिर॥347॥

आवति चंचल चखनि नचावत मृगनि लजावति।
बहुतेरी गावति कोकिल कुल मूक बनावति॥348॥

बीर विजय दिन वीर भूमि के वीर उछाहित।
अस्त्र शस्त्र बाहन पूजन नव वसन सुसज्जित॥349॥

बीर भाव सो भरे चहूँ दिसि सों जन आवत।
जनु रावण बध काज अवध नर दल चल धावत॥350॥

राजकुमारी पाग सबै सिर टेढ़ी बाँधे।
तोड़ेदार तुपक कोउ-कोउ धरि लाठी काँधे॥351॥

कोऊ ढाल तलवार कोऊ कर सांग बिराजत।
कोऊ बरछी लै तुरंग चढ़े करतबहिं दिखावत॥352॥

कोउ सिंगार सज्जित मातंग चढ़े ऐंड़ाये।
निज दलबल संग आवत विजय पताक उड़ाये॥353॥

आय लखत लीला सह कौतुक भक्ति भरे मन।
होत युद्ध घमसान रामरावन को जा छन॥354॥

आतशबाजी धूम छाय जब लेत अकासहिं।
होत सोर अन्दोर सकत कोउ सुनि नहिं बातहिं॥355॥

रावन को बध होत जबै जय-जय धुन गूंजत।
गिरत धरहरा सम कागद रावण छिति चूमत॥356॥

बरसनि ढेलन की तब होत बन्द कोउ भांतिन।
लंका स्वर्ण लूटि कै लौटत घर जन जा छिन॥357॥

मिलत परस्पर प्रेम सहित सबही हिय हर्षित।
करत प्रनामासीस पान लाची त्यों वितरित॥358॥

त्यों इनाम अकराम लहत बहु लोग यथावत।
सेवक, द्विज दच्छिना, कंचनी, कवि धन पावत॥359॥

भाँति भाँति के याचक त्यों जन दीन जुरे बहु।
लहत दान, सम्मान सहित संग प्रजा समूहहु॥360॥

लेत मिठाई पान सगुन करि नजर गुजारत।
निज स्वामी अभिवादन करि निज भवन सिधारत॥361॥

भरत मिलाप अधिक लोगन को मन उमगावन।
जादिन होत सनाथ अवध को दुखित प्रजागन॥362॥

होत राजगद्दी की अति विशाल तैयारी।
शारद पूनो निसि लहि दीपावली उज्यारी॥363॥

होत राजसी ठाट बाट संग जसन मनोहर।
होत सबै कृत कृत्य पाय लीला विनोदवर॥364॥

आवत कातिक की जब रजनि उँज्यारी प्यारी।
जुते हिंगाये खेत बनत उज्वल दुतिधारी॥365॥

बड़े बड़े खेतन मैं रजनी समय प्रहर्षित।
कढ़त गोल की गोल खेल खेलन झावरि हित॥366॥

सौ सौ जन संग सोर करत खेलत भरि हौसन।
अति कोलाहल मचत युद्ध सम दोउ दल बीचन॥367॥

भितरीरच्छत किते, बाहरी करत चढ़ाई.
छ्वै भाजनि, गहि पकरन हीं मैं होत लराई॥368॥

घायल होत कोऊ, कोऊ को कर पग टूटत।
तऊ मची ही रहत महीनन खेल न छूटत॥369॥

कहाँ कृकिट, फुटबाल, कहाँ हाकी टग-वारहु।
ऐसो विषद विनोद सकत उपजाय विचारहु॥370॥

जामैं होत सहज हीं शिक्षा युद्ध चातुरी।
बिन आडम्बर, खरच, सबै सीखत बहादुरी॥371॥

हिम ऋतु आवत जबहिं ठौर ठौरहिं तपता सब।
बरत जुरत इक भाँति कथा बहु कहतसुनत सब॥372॥

वृद्ध युवक अरु ऊँच नीच अनुसार मण्डली।
गठत तहाँ तस ठाट, बात जित रुचत जो भली॥373॥

कहुँ बोलत हुक्का, कहुँ सुरती मलत खात जन।
छींकत सुंघनी सूंघी सूंघि कोउ बहलावत मन॥374॥

कहत कथा बहु भाँति सुनत केतने मन दीने।
कहूँ चिकारा बजत लोग गावत रस भीने॥375॥

फागुन के नगिच्यात जात रंग बदलि और ढंग।
सम वयस्क जन जुरत मिलत अरु कढ़त एक संग॥376॥

घुटत भंग कहुँ छनत रंग कहुँ बनत कहूँ पर।
चलत पिचुक्का अरु पिचकारी करत तरातर॥377॥

कहुँ करही उबलत, सूखत, महजूम बनत कहुँ।
कहूँ अबीर गुलाल कुमकमुमा रंग चलत चहुँ॥378॥

कहुँ धमार की-की धूम, कहूँ चौताल होत भल।
मच्यो फाग अनुराग जाग सो गयो सबै थल॥379॥

धमकत ढोल, बजत डफ़, झाँझ अनेक एक संग।
मंजीरा करताल सबै जन रँगे एक रंग॥380॥

गावत भाव बतावत नाचत लोग रंगीले।
बाल युवक अरु वृद्ध भए इक सरिस रसीले॥381॥

कहुँ गृह भीतर सों युवती तिय गावत फागहिं।
ढोल मंजीरा के संग, जनु जगाय अनुरागहिं॥382॥

बाहर सों फगुहार जुरे जुव जन रस राते।
उनके लत बिराम तुरत जे सब मिल गाते॥383॥

होत सवाल जवाब जोड़ के तोड़ फाग सन।
लाग डाँट मैं यों बीतत निशि रम्य अनेकन॥384॥

बरु बहुदिन चढ़िबे लगि फाग बन्द नहिं होतो।
इक दल हारत जबहिं होत तबहीं सुरझोतो॥385॥

ज्यों ज्यों आवत निकट दिवस होरी को या विधि।
त्यों त्यों उमड़त ही आवत आनन्द पयोनिधि॥386॥

अरराहट कबीर की चहुँ दिशि परत सुनाई.
बाहर गाँवन के युवती जहँ परत लखाई॥387॥

सन्ध्या रजनी समय होलिका इन्धन संचय।
हित, नव युवक सहित बालकगन अतिसय निर्भय॥388॥

किये गुट्ट, अरु लिये शस्त्र चुपचाप बदे थल।
देशी जन के घर अथवा खेतन पैं जुरि भल॥389॥

लूटत बेरहून के काँटे छप्पर औ टाटिन।
चोरी त्यों बरजोरिन चलत चलावत लाठिन॥390॥

तिनसों छीनत लोग प्रबल बीचहिंमैं लरिभिरि।
पै नहिं काढ़त कोऊ जात जब होरी मैं गिरि॥391॥

गाली और गलौजन की तौ गिनती ही नहिं।
रहत उन दिननि माहि जाति मानी मन भावनि॥392॥

बदलो लोग चुकावत ऐसहिं होति शक्ति जिहि।
सावधान सब लोग रहत याही सों हित तिहि॥393॥

सांझ सकारे दुपहर घुटत भंग अधिकाधिक।
सिल लोढ़न की मची खटाखट रहत चार दिक॥394॥

धमकत ढोल रहत अस फाग मच्यो निसि बासर।
फटत ढोल बहु ढोलकिहन की अंगुरिन तर तर॥395॥

बहत रुधिर पै तऊ न वै कोऊ विधि मानत।
लत्ते सजल लपेटि आंगुरिन ढोल बजावत॥396॥

होत नृत्य आरम्भ निकट होरी दिन आवत।
नचत कंचनी सुमुखि जोगीड़े धूम मचावत॥397॥

तदपि गिनेही चुने राग रस रसिक लोग ही।
रहत उतै कै जे सम्मानित मनुज बहुत ही॥398॥

नहिं तो फाग मंडली तजि कोउ ताहि न ताकत।
चढ़îो फाग को भूत मनहुँ सबके सिर नाचत॥399॥

होली की निशि मचत भड़ौवा फाग धूम सों।
धूलि उड़े लगि रहत निरन्तर रूम झूम सों॥400॥

अद्भुत दृश्य दिखात निशि दिवस वह मनभावनि।
जो देखेउ सोइ जानत है, ह्वै सकत बखाननि॥401॥

नये सबै उन्मत्त बाल अरु वृद्ध एक संग।
नाचत कूदत भाव बतावत गाय सबै संग॥402॥

गाली की गाथा विचित्र कविता सग टेरत।
घूमि घूमि चहुँ ओर फिरत युवती तिय हेरत॥403॥

होरी रात जलाय प्रात मिलि धूलि उड़ावत।
पी पी भंग उमंग सहित बहु स्वांग सजावत॥404॥

बैठे गर नहिं गाय जाय पै तौ हूँ गावै।
परत आँगुरी ढोल न पै, हठि ढोल बजावैं॥405॥

नसा नींद सों उघरत नहिं दृग तौहूँ ताकैं।
सिथिल गात पग परत न पै चलि तिय गन झाँकैं॥406॥

देखत तिय अरराय कबीर गाय दोरावैं।
जाके बदले रंग नीर बरु कीचहुँ पावैं॥407॥

आस पास गाँवन मैं घूमत गाली गावत।
जहँ पहुँचत अति ही आदर सों स्वागत पावत॥408॥

गुह वा ग्राम प्रधान पुरुष जे परम वृद्ध नर।
यथा उचित सत्कार करत मिलि सबहिं द्वार पर॥409॥

गृह स्वामिन त्यों गाली सुनि निज जुरी सखिन संग।
मारि भगावत सबन फेंकि जल अमित कीच रंग॥410॥

घूमि घामि तब आय द्वार की धूलि उड़ावत।
ढोल छोड़ि सब जात नदी अन्हाय जब आवत॥411॥

खात पियत पुनि भाँग पियत कपड़े बदलत सब।
मलि मलि गाल गुलाल परस्पर मिलत गले तब॥412॥

होत सलाम प्रणामाशिष नव वर्ष यथोचित।
धन्यवाद जगदीश देत तब परम प्रहर्षित॥413॥

होत नृत्य अरु गान देव पूजन मजलिस सजि।
गुजरत नजर बटत इनाम-अकराम बाज बजि॥414॥

होत फैर अरु बाढ़ दगत जहँ पर हम देखे।
आज न तहँ कछु चिह्न दिखात न तिह के लेखे॥415॥

जित आवत नित नव कवि कोविद पंडित चातुर।
ढाढ़ी कथक कलावंत नट नरतक अरु पातुर॥416॥

विविध बाद्यविद नट चेटक बहुरूपिये सुघर।
इन्द्रजालि बाजीगर सौदागर गुन आगर॥417॥

तहँ नहिं मनुज लखात न कछु सामान सुहावन।
ढहे धाम अभिराम देखि वै लगत भयावन॥418॥