Last modified on 20 मई 2018, at 17:21

वाटिका / प्रेमघन

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:21, 20 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रही कहांइत वह सुविशाल विशद फुलवारी।
भांति भांति फल फूलन सों मन मोहन वारी॥419॥

जामैं राजत कुटी एक फूसहि सों छाई.
आलड्वाल विहीन तऊ अतिसय सुखदाई॥420॥

जामैं चौकी एक खाटहू इक साधारन।
बिछी रहति इक ओर सहित सामान्य अस्तरन॥421॥

कम्मल गुनरी और चटाई हू द्वै इक जित।
रहति तहाँ आगन्तुक जन के बैठन के हित॥422॥

द्वै ही इक जल पात्र और सामान्य उपकरन।
प्रस्तुत वामें रहत सहित द्वै इक सेवक जन॥423॥

जेठे वृद्ध पितामह मम ऋषि कल्प जहाँ पर।
रहत विरक्तभाव सों भक्ति ज्ञान के आकर॥424॥

केवल सान्त सुभाव मनुज जाके दर्शन हित।
जाते जिज्ञासू जन अरजन ज्ञान हेतु तित॥425॥

संसारिक वातन की तौ न चलत चरचा तहँ।
ज्ञान विराग भक्ति मय कथा पुरान होत जहँ॥426॥

जब हम सब बालक गन जाय तहाँ जुरि जाते।
करि प्रणाम दूरहिं सों छिति पर सीस नवाते॥427॥

विहँसि बुलाय लेत पढ़िबै की बातें पूछत।
अरु आरोग्य प्रश्न, करि सत सिच्छा उपदेसत॥428॥

बैठारत ढिग, कहत दास निज सों आनन हित।
मालिन सों फल मधुर हम सबन हेतु यथोचित॥429॥

पाय पाय फल हम सब बिदा होय तहँ सो सब।
घूमत घुसि उद्यान बीच इत उत सब के सब॥430॥

नोचत कोऊ खसोटत फल फूलन मन भाए.
कच्चे पके; कली डाली हाली हरषाए॥431॥

यदपि चलत चुप चाप दुराए गात सबै जन।
तऊ पाय आहट लख चिल्लाने माली गन॥432॥

भाजत हम सबतुरत खदेरत आवत माली।
बीनत गिरी परी कलिका फल संयुक्त डाली॥433॥

जात मोलवी ढिग लखि हम सब जुरि आयत।
करै न वह फिरियाद कोऊ बिधि ताहि मनावत॥434॥

भाँति भाँति समयानुसार ऋतुफल नव फूलन।
हम सब लहत जहाँ सुखसो विहरत प्रमुदित मन॥435॥

आज न तह दु्रम, लता, रविश पटरी न लखाहीं।
प्राकारहु को चिह्न कहूँ क्यों लखियत नाहीं॥436॥

यहै बिछौना ताल, बाग मम प्रपितामह त्यों।
दिखरावत निज हीन दशा बन बीहड़ थल ज्यों॥437॥

जिहि अमराई मध्य रामलीला वह होती।
नवो-रसन की बहति महीनन जित नित सोती॥438॥

और पितामह पितृव्यन की जे अमराईं।
कूप सरोवर आदि नष्ट छबि भे सब ठाईं॥439॥

औरहु जेते रहे तबै अतिशय-रम्य-स्थल।
जहँ हमसब बालक गन बिहरत अरु खेलत भल॥440॥

तेऊ सब दुर्दशा ग्रस्त अब परत लखाई.
दीन हीन छबि भये न कैसहुँ परत चिन्हाई॥441॥