"कौवा नारी" घाट नदी "मझुई" को सुन्दर।
सहित सुभग तरु बृन्दन के जो रह्यो मनोहर॥442॥
रह्यो हम सबन को जो भली विहार स्थल वर।
भयो अधिक छबि हीन थोरे ही दिवस अनन्तर॥443॥
वह सेमर सुविशाल लाल फूलन सों सोहत।
सह बट बिटप महान घनी छाहन मन मोहत॥444॥
भाँति भाँति द्विज वृन्द जहाँ कलरव करि बोलैं।
शाखन पैं जिनकी शाखामृग माल कलोलैं॥445॥
जिनकी छाया अति बसन्त बासर मैं प्यारी।
पास ग्राम के आय न्हाय सेवत नर नारी॥446॥
कोऊ सुखावत केश ओट तरु जाय अकेली।
निज मुख चन्द छिपाय अलक अबली अलबेली॥447॥
करति उपस्थित ग्रहन परब अवगाहन के हित।
कारन जो नव रसिक युवक जन दान देन चित॥448॥
बहु बालिका जहाँ जुरि गोटी गोट उछालति।
चकित मृगी-सी कोऊ नवेली देखत भालति॥449॥
संध्या समय जहाँ बहुधा हम सब जुरि जाते।
भाँति भाँति की केलि करत आनन्द मनाते॥450॥
छनत भंग कहु रंग-रंग के खेल होत कहुँ।
कोऊ अन्हात पै हाहा ठीठी होत रहत चहुँ॥451॥
होली के दिन जित अन्हात हम सब मिलि इक संग।
खेद होत तहँ को लखि आज रंग बहु बेढंग॥452॥