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कजली / 26 / प्रेमघन

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नटिनी की लय

नैन तोरे बाँके रे गूजरिया॥
चितवत हीं चित ऊपर परत, आय जनु डाँके रे गूज।॥
कहर काम कौ करद समान, बान सैना के रे गूजरिया॥
ऐसी अजब घाव ये करत, लगत नहिं टाँके रे गूजरिया॥
बरसत प्रेम प्रेमघन कौन मन्त्र पढ़ि झाँके रे गूजरिया॥46॥

॥दूसरी॥

बोलावै मोहिं नेरे रे साँवलिया।
फिरत मोहिं घेरे रे साँवलिया॥
रोकत जमुना तट पनिघटवाँ, साँझ सबेरे रे साँवलिया।
भाजत धाय हाय मुख चूमि, मिलत नहिं हेरे रे साँवलिया॥
कौन बचावै अब मोहिं, कोऊ सुनत नहिं टेरे रे साँवलिया॥
मेरी गलिन अली बह लँगर, करत नित फेरे रे साँवलिया॥
रसिक प्रेमघन मानत नाहिं, कहे वह मेरे रे साँवलिया॥47॥