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कजली / 31 / प्रेमघन

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नेक नजर कर नेक निहार, आस मोहिं तोरी रे साँवलिया॥
हौं अति नीच, पाप के कीच, फँसी मति मोरी रे साँवलिया॥
निसु दिन काम, क्रोध सों काम, लोभ की खोरी रे साँवलिया॥
तुम कहँ भूलि, विषय की धूलि, सराहि बटोरी रे साँवलिया॥
पाहि! प्रेमघन, पतितन पावन! लखि निज ओरी रे साँवलिया॥52॥

॥दूसरी॥

भूली सुधि बुधिनागर नटकी, लखे लट लटकी रे साँवलिया॥
गोरे गाल, चन्द पर ब्याल, बाल जनु भटकी रे साँवलिया॥
अतिही प्यास, अमृत कीआस, आय जनु अँटकी रे साँवलिया॥
निरखनहार, देत विष धार, काढ़ि निज घटकी रे साँवलिया॥
मिलु अभिराम, प्रेमघन स्याम, पीर हरि टटकी रे साँवलिया॥53॥


॥तीसरी॥

संग चलि चलिके, हियेहलि हलिके, ठगे छलि-छलिकै साँवलिया॥
लै रस हाय! गये अनखाय, रहै टलि टलिकै रे साँवलिया॥
सूखी प्रीति, बेलि सब रीति, फूलि फलि फलिकै रे साँवलिया॥
गुनि-गुनि गाथ, प्रेमघन हाथ, रही मलि मलिकै रे साँवलिया॥

॥चौथी॥

भल छल किहले छली! गनि गनिकै, मीत बनि बनिकै रे साँवलिया॥
लखि ललचाय, मन्द मुसुकाय, प्रेम सनि सनिकै रे साँवलिया॥
करि बेचैन, दिहे सर नैन, सैन हनि हनिकै रे साँवलिया॥
लै मन हाथ, छोड़ि फेरि हाथ, चले तनि तनिकै रे साँवलिया॥
तान, प्रेमघन मान, ठान ठनि ठनिकै रे साँवलिया॥55॥