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कजली / 36 / प्रेमघन

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गृहस्थिनों की लय

मीठी तान सुनाय प्रान करि बिकलगयो बनमाली रामा।
हरि हरि मोहि लियो मन मेरो मुरलीवाला रे हरी॥
मोर मुकुट सिर, लकुट कलित कर, कटि पट पीत बिराजै रामा।
हरि हरि छबि छाजै उर लसित ललित बनमाला रे हरी॥
रसिक प्रेमघन बरसत रस क्या सुभग साँवरी सूरत रामा।
हरि हरि मनहुँ मोहनी मूरति मदन रसाला रे हरी॥63॥