Last modified on 21 सितम्बर 2008, at 19:23

घर से निकले सुबह, शाम को घर लौटे / जहीर कुरैशी

सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:23, 21 सितम्बर 2008 का अवतरण

घर से निकले सुबह, शाम को घर लौटे
मीठी—मीठी थकन लिए अक्सर लौटे

जब भी लोगों को थोड़ा एकांत मिला
सबके मन में अपने—अपने डर लौटे

दंगों में इतना झुलसा घर का चेहरा
हम अपनी ही देहरी तक आकर लौटे

पंख कटे पंछी की आहत आँखों में
जाने कितनी बार समूचे ‘पर’ लौटे

सोच रहा है बूढ़ा और अशक्त पिता—
बेटे के स्वर में शायद आदर लौटे !

शब्द बेचने में क्या पूँजी लगनी थी
अर्थ लिए ,शब्दों के सौदागर लौटे

हमने जैसे कंकर —पत्थर बोए थे
धरती से वैसे कंकर —पत्थर लौटे.