Last modified on 3 अक्टूबर 2008, at 22:17

लोग अपने आप से भी युद्ध करने से डरे / जहीर कुरैशी

सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:17, 3 अक्टूबर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लोग अपने आप से भी युद्ध करने से डरे
अपने अंदर के ‘घमासानों’ में मरने से डरे

घर के अंदर आपके, वैभव की जगमग देखकर
कीमती कालीन पर हम पाँव धरने से डरे

कौन झरना चाहता है जिन्दगी की शाख से
मुस्कुराते फूल ,मन ही मन बिखरने से डरे

कीर्ति के सर्वोच्च पर्वत के शिखर पर बैठ कर
ख्यातिनामा लोग, फिर नीचे उतरने से डरे

हल्के—फुल्के चुट्कुलों की बात मैं करता नहीं
उनके सम्मुख,व्यंग्य चेहरे पर उभरने से डरे!

फिर कोई आकर कुरेदेगा हरे कर जाएगा
इसलिए भी तो हमारे जख्म भरने से डरे

अब सुधरने की कहीं कोई भी गुंजाइश नहीं
सोचकर ये बात, अपराधी सुधरने से डरे.