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नव हे, नव हे / सुमित्रानंदन पंत

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नव हे, नव हे!
नव नव सुषमा से मंडित हो
चिर पुराण भव हे!
नव हे!--

नव ऊषा-संध्या अभिनन्दित
नव-नव ऋतुमयि भू, शशि-शोभित,
विस्मित हो, देखूँ मैं अतुलित
जीवन-वैभव हे!
नव हे!--



रचनाकाल: अप्रैल’१९३५