...आतंक की ये प्रचण्ड ज्वाला...
शून्यता किस को कहते हैं
वर्तमान से बड़ा
इसका कोई उदाहरण नहीं
अच्छा हुआ देश
पहले ही आज़ाद हो गया
कुछ ऐसी शख़्सियतों
के द्वारा जिन्होंने
महसूस किया
मेरी तेरी नहीं
बल्कि पूरे देश की ग़ुलामी का दर्द,
महसूस किया विदेशी हाथों
अबलाओं की लुटती इज़्ज़त का दर्द
महसूस किया
अपनी माटी को
विदेशी जूतों से
रौंदे जाने का दर्द
महसूस किया
अन्याय के हाथों
न्याय का गला घोंटे जाने का दर्द
नमन है उन शहीदों को
जो मिट गये
इन दर्दों को मिटाने में
मगर अब हर ज़ुल्म
सिर्फ अख़बार की सुर्ख़ियों के लिए है
दिनोंदिन उसकी बिक्री के लिए है
अब कानों को
आतंकी निर्दयी हाथों से
निरपराध,अबला, मासूमों
पर होने
वहशियाना हमलों की
चीख़ें सुनाई नहीं देती
और अगर देती भी हैं
तो सुन कर भी अनसुनी कर दी जाती हैं
क्योंकि
ये दर्द तो तब होता
जब सबके लिए
सबके दिल में दर्द होता
हर आँख का अश्क
अपनी आँख का अश्क होता है
आज हुआ है
कल फिर होगा
हर रोज होगा
और
तब तक होगा
आतंक का ये वहशियाना खेल
जब तक हम खुद को
पूरे देश, पूरी क़ौम के लिए
समर्पित करने को तैयार न होंगे
स्वार्थ की ज़ंजीरों से
खुद को आज़ाद कर
औरों के लिए ज़ीने
और मरने को तैयार न होंगे
तब तक
आतंक की ये प्रचण्ड ज्वाला
जलती रहेगी और जलाती रहेगी
सुशील सरना
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