(53)
माई री! मोहि कोउ न समुझावै |
राम-गवन साँचो किधौं सपनो, मन परतीति न आवै ||
लगेइ रहत मेरे नैननि आगे राम-लखन अरु सीता |
तदपि न मिटत दाह या उरको, बिधि जो भयो बिपरीता ||
दुख न रहै रघुपतिहि बिलोकत, तनु न रहै बिनु देखे |
करत न प्रान पयान, सुनहु, सखि! अरुझि परी यहि लेखे ||
कौसल्याके बिरह-बचन सुनि रोइ उठीं सब रानी |
तुलसिदास रघुबीर-बिरहकी पीर न जाति बखानी ||