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कहै सुक, सुनहि सिखावन, सारो !
बिधि-करतब बिपरीत बाम गति, राम-प्रेम-पथ न्यारो ||
को नर-नारि अवध खग-मृग, जेहि जीवन रामतें प्यारो |
बिद्यमान सबके गवने बन, बदन करमको कारो ||
अंब, अनुज, प्रिय सखा, सुसेवक देखि बिषाद बिसारो |
पञ्छी परबस परे पीञ्जरनि, लेखो कौन हमारो ||
रही नृपकी, बिगरी है सबकी, अब एक सँवारनिहारो |
तुलसी प्रभु निज चरन-पीठ मिस भरत-प्रान रखवारो ||