भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीतावली अयोध्याकाण्ड पद 61 से 70/पृष्ठ 6

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(66)

सुकसों गहवर हिये कहै सारो |
बीर कीर! सिय-राम-लषन बिनु लागत जग अँधियारो ||

पापिनि चेरि, अयानि रानि, नृप हित-अनहित न बिचारो |
कुलगुर-सचिव-साधु सोचतु, बिधि को न बसाइ उजारो ?||

अवलोके न चलत भरि लोचन, नगर कोलाहल भारो |
सुने न बचन करुनाकरके, जब पुर-परिवार सँभारो ||

भैया भरत भावतेके, सँग बन सब लोग सिधारो |
हम पँख पाइ पीञ्जरनि तरसत अधिक अभाग हमारो ||

सुनि खग कहत अंब! मौङ्गी रहि समुझि प्रेमपथ न्यारो |
गए ते प्रभुहि पहुँचाइ फिरे पुनि करत करम-गुन गारो ||

जीवन जग जानकी-लषनको, मरन महीप सँवारो |
तुलसी और प्रीतिकी चरचा करत, कहा कछु चारो ||