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पद 241 से 250 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

पद संख्या 243 तथा 244

(243)

यहै जानि चरनन्हि चित लायो।
नाहिन नाथ! अकारनको हितू तुम समा पुरान-श्रुति गायो।1।

 जनकि-जनक, सुत -दार ,बंधुजन भये बहुत जहँ-तहँ हौं जायो।
सब स्वारथहित प्रीति, कपट चित, काहू नहिं हरिभजन सिखायो।2।

सुर-मुनि, मनुज-दनुज, आहि-किन्नर, मैं तनु धरि सिर काहि न नायो।
जरत फिरत त्रयताप पापबस , काहु न हरि! करि कृपा जुड़ायो।3।

 जतन अनेक किये सुख-कारन, हरिपद-बिमुख सदा दुख पायो।
अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति-जाल जग छायो। 4।

मो कहँ नाथ! बुझिये, यह गति, सुख -निदान निज पति बिसरायो।
अब तजि रोष करहु करूना हरि! तुलसिदास सरनागत आयो।5।

(244)

याहि ते हैं हरि ग्यान गँवायो।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहि, बाहर फिरत बिकल भयो धायो।1।

ज्यों कुरंग निज अंग रूचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि , तरू, लता, भूमि, बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो।2।

ज्यों सर बिमल बारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजि हौं सठ, चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो।3।

ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारून, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपनेहि धाम नाम-सुरतरू तजि बिषय-बबूर-बाग मन लायो।4।

 तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो।
तुलसिदास प्रभु! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो।5।