पद 241 से 250 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 241 तथा 242
(241)
तब तुम मोहूसे सठनि को हठि गति न देते।
कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुनि सादर आगे ह्वै लेते।1।
पाप-खानि जिय जानि अजामिल जमगन तमकि तये ताको भे ते।
लियो छुड़ाइ, चले कर मींजत , पीसत दाँत गये रिस-रेते।2।
गौतम-तिय,गज ,गीध, बिटप , कपि, हैं नाथहिं नीके मालुम जेते।
तिन्हके काज साधु-समाजु तजि कृपासिंधु तब उठिगे ते।3।
अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे , पतित पुनीत होत नहिं केते।
मेरे पासंगहु न पूजिहैं,ह्वै गये, हैं , होने खल जेते।4।
हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते।
अब तुलसी पूतरो बाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते।5।
(242)
तुम सम दीनबंधु , न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई।
मोसम कुटिल-मौलिमनि नहिं जग, तुमसम हरि! न हरन कुटिलाई।।1।
हौं मन-बचन -कर्म पातक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई।
हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई।2।
हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई।
हौं सभीत तुम हरन सकल भय ,कारन कवन कृपा बिसराई।3।
तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई।
यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई।4।